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नव वर्ष पर कविता

नव वर्ष

आ गया नववर्ष,क्या संदेह,क्या संभावना है?
शेष कुछ सुकुमार सपने,और भूखी भावना है।

हैं विगत के घाव कुछ,जो और गहरे हो रहे हैं,
बात चिकनी और चुपड़ी,सभ्यता या यातना है!

ओढ़कर बाजार को,घर घुट रहा है लुट रहा है,
ग्लानि की अनुभूति दे जाती कटुक,शुभकामना है।

नींद उनको फूल की शैय्या मेंं भी आती नहीं है,
किन्तु पर्यक वंचितों का,कंटकों से ही बना है।

शुद्धता हो रंग मेंं ये ध्यान रख पाते कदाचित!
ज्ञात होता रंग किन निर्दोष रक्तों से सना है !!

और कब तक मैं हँसू,होकर प्रताड़ित भाग्य बोलो,
पत्थरों के देवता के सामने रोना मना है।

धूप,दीपक,गंध,पूजा,अर्चना वह क्या करेगा!
श्रम करे तो साधना है,प्रेम ही आराधना है।

नव्यता की भ्राँति है,नववर्ष यदि मन जीर्ण हो तो,
वस्तुतः नववर्ष जीवन हर्ष की शुभ सर्जना है।

हो सुसंस्कृतियाँ प्रवाहित,लोकमंगल भाव लेकर,
पर्व तो कल्याण की नव प्राण की अभ्यर्थना है।

रेखराम साहू(बिटकुला/बिलासपुर)

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