निःशब्द तो नहीं

निःशब्द तो नहीं

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[१]
निःशब्द तो नहीं !
किंचित् भी नहीं !!
बस…
नहीं हैं आज
शहद या गुलाबी इत्र में
डुबोये
सुंदर-सुकोमल-सुगंधित शब्द
नहीं हैं आज
कर्णप्रिय,रसीले,
बांसुरी के तानों संग
गुनगुनाते अल्फाज़…
सब जल गये !
भस्म हो गये
सारे के सारे
अंतरिक्ष में विचरते
छंद
टूट-फूटकर
बिखर गये सारे अलंकार
निस्सार हो गयीं
सारी व्यंजनाएँ
लक्षणा भी हो गयीं सारी
महत्त्वहीन..
अब
बचे हैं तो केवल
उबड़-खाबड़
कंटकाकीर्ण
क्षिति पर पांव जमाते
……कुछ शब्द
जो टटोलते हैं
पैरों से अपना ज़मीन
पैरों के अंगूठों से ही
गाड़ते हैं अपना वज़ूद
खिलते हैं जहाँ
नागफनी के रक्ताभ टोहे
जो रोते हैं…
अक्सर..
फफक-फफककर रोते हैं ,
बड़बड़ाते हैं कुछ अस्फुट शब्द
फिर चीत्कार उठते हैं ,
छिटकती हैं-
उनकी रक्तिम आँखों से
पीली-नारंगी गरल की बूँदें
क़लम भी फुफकारती-
उगलती है चिंगारियाँ..
उसके नीब-
नाखूनों-से
तीखे-नुकीले-नाखूनों-से
चिरते हैं इतिहास के पन्ने..
आज के परिवेश से नाख़ुश
विचारोन्माद में
क़दम-दर-क़दम
करते कटाक्ष
ठहराते कुसूरवार
पुरानी पीढ़ियों को ही
जड़ देते उनपर
अपनी सारी असफलताएँ
फिर वर्तमान के खाते पर
उकेरते हैं
भविष्य का लेखा-जोखा..
परन्तु असुरक्षाबोध से चिंतित
दबी-दबाई सांसारिक कुण्ठाएँ
कभी-कभी कुलबुलाती हैं
अतः दुर्वासनोत्कर्ष में
दीवार की पीठ पर
खींच जाती हैं स्वाभाविक
और चुपचाप ओढ़ लेती हैं
सभ्यता की साड़ियाँ
पर…
निःशब्द तो नहीं !
किंचित् भी नहीं।।
[२]
मेरे अंदर का ‘क्षितिज’
जो गुलाबों से इश्क़ करता है..
जो पीछा करता है
बीहड़ों में भी-
मदहोश करने वाली
सुरीली-फाहेदार-मीठी आवाज़ों का
जो लोकगीतों में…
तलाशता है
पुरातन संस्कृतियों की नवीनता
अब कौओं के गानों से
सुर मिलाता
सूँघता है आक के फूल
आहिस्ता-आहिस्ता
मौन हो जाता है कभी..
कभी बड़बड़ाता है
संवेदनाहीन नहीं
सारहीन भी नहीं
बिलकुल नहीं..
केवल अर्थहीनता में
वह
चीखता है..चिल्लाता है
जिन्हें
यह सभ्य समाज
अपशब्द कहता है,
देखता है
टेढ़ी नज़रों से
पीठ पीछे कसता है ताने
देता है
विक्षिप्ता के नये-पुराने उपमान
जो स्वयं असभ्यता की गहरी
नालियों से निकलती
रूढ़ियों के सढ़ी-बूढ़ी बदबूओं में
है सराबोर…
सीख गया है
काले को सफ़ेद कहना
और कुरीतियों में
संस्कृति ढूँढ़ना
जो सीख गया है
निज स्वार्थ के लिये
बलि को प्रसाद कहना
यह सभ्य समाज
किसके इशारे पर चलता है?
किसके फरमान पर
किसी विक्षिप्ता को
‘टोनही’ की संज्ञा दे
बीच चौराहे पर
ज़िंदा ही जला देता है??
यह सभ्य समाज…
किसके आग्रहानुग्रह से
किसी वैश्या को
साध्वी मान पूजने लगता है ??
विरोधाभासों के पेण्डुलम में
झूलता यह सभ्य समाज
अपनी चाल बदल-बदल
करता है आतंकित
पर…
निःशब्द तो नहीं!
किंचित् भी नहीं ।।
[३]
चूहों की मूँछों से
बुहारते प्रजातंत्र के पथ
झाड़ते वहीं सूक्ष्मातिसूक्ष्म
प्लेग के कीटाणु
दूषित मानसिकता का फैलाव
लपेटता अपने में
देश का निजत्त्व
संक्रमित..
संपूर्ण मीडिया के तार
सब दोषी!
दोषी स्वयं वही
जो विनाश के मंज़र को
लीला समझे,
दोषी स्वयं वह भी
जो युद्ध की अनिवार्यता को
संविधानों की काली पट्टियों से
ढंकना चाहे,
दोषी वह भी
जो निर्लिप्त रहे शांति या युद्ध से
सब दोषी
सब के सब दोषी
जी हाँ सब दोषी ।
भीड़ चाहे सच को झूठ बना दे
या झूठ को सच
शिव कुछ नहीं..
सुंदर यहाँ कुछ भी नहीं
सत्य भी-
मिथ्यावृत्त असंख्य परतों में
दबा-कसमसाता-बिलखता..
चीखने की भंगिमाएँ बनाता है
केवल
पर बेआवाज़!
कोई नहीं सुन पाता
कोई सुन ही नहीं पाता
उसकी चीख
जो
सदियों से दबी-कुचली
झूठ के खंडहरों के-
मलबों के बीच
सांस लेती
कभी-कभी अकेले में..,
चारों तरफ़ के सन्नाटे को भेदती
भर्र-भर्र
लगाती है चक्कर
चमगादड़ों-सी
कभी इधर
कभी उधर
कभी गोल-गोल
स्वयं के परा-ध्वनियों में
गूँथती है डर…!!
लोग उन परा-ध्वनियों के
तात्पर्यों से दूर
अकिंचन बन
चुपचाप बदल लेते हैं
अपने मूल्य
किंतु..
वे सत्य के तात्पर्य,
वे ध्वनियाँ
वो चीख…
निःशब्द तो नहीं !
किंचित् भी नहीं ।।
  ©सर्वाधिकार सुरक्षित!
-@निमाई प्रधान’क्षितिज’
        रायगढ़,छत्तीसगढ़
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

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