पतझड़ और बहार/ राजकुमार ‘मसखरे’

पतझड़ और बहार/ राजकुमार ‘मसखरे’

पतझड़ और बहार/ राजकुमार 'मसखरे'
पतझड़ और बहार/ राजकुमार ‘मसखरे’


ये  घुप अंधेरी  रातों में
धरा को  जगमग करने
दीवाली आती जो जगमगाती !

सूखते,झरते पतझड़ में
शुष्क  जीवन  को रंगने
वो होली में राग बसंती गाती  !

झंझावत, सैलाब लिए
जब  पावस दे दस्तक,
तब फुहारें मंद-मंद मुस्काती !

कुदरत हमें सिखाता है
बिना कसक व टीस के
वो ख़ुशी समझ नही आता है !

जो न  जाने  दुख  कभी
जिसे सुख की भान नही,
वह झटके से झूल जाता है !

इधर  कैसे  वो अमीर
शीश महल में बैठकर
ग़रीबी की परिभाषा बताता है !

         — *राजकुमार ‘मसखरे’*

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