परशुराम की प्रतीक्षा -रामधारी सिंह ‘दिनकर’
छोड़ो मत अपनी आन, शीश कट जाए,
मत झुको अनय पर, भले व्योम फट जाए।
दो बार नहीं यमराज कण्ठ हरता है,
मरता है जो, एक ही बार मरता है।
तुम स्वयं मरण के मुख पर चरण धरो रे।
जीना है तो मरने से नहीं डरो रे॥
आँधियाँ नहीं जिसमें उमंग भरती हैं,
छातियाँ जहाँ संगीनों से डरती हैं।
शोणित के बदले जहाँ अश्रु बहता है,
वह देश कभी स्वाधीन नहीं रहता है।
पकड़ो अयाल, अंधड़ पर उछल चढ़ो रे।
करिचों पर अपने तन का चाम मढ़ो रे॥
हैं दुखी मेष, क्यों लहू शेर चखते हैं,
नाहक इतने क्यों दाँत तेज रखते हैं।
पर शेर द्रवित हो दशन तोड़ क्यों लेंगे?
मेषों के हित व्याघ्रता छोड़ क्यों देंगे?
एक ही पन्थ, तुम भी आघात हनो रे।
मेषत्व छोड़ मेषो! तुम व्याघ्र बनो रे॥
जो अड़े, शेर उस नर से डर जाता है,
है विदित, व्याघ्र को व्याघ्र नहीं खाता है।
सच पूछो तो अब भी सच यही वचन है।
सभ्यता क्षीण, बलवान हिंस्र कानन है।
एक ही पंथ अब भी जग में जीने का,
अभ्यास करो छागियो! रक्त पीने का।
वे देश शान्ति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,
जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,
हैं जिनके उदर विशाल, बाँह छोटी है,
भोंथरे दाँत, पर जीभ बहुत मोटी है।
औरों के पाले जो अलज पलते हैं,
अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।
सिंहों पर अपना अतुल भार मत डालो,
हाथियो! स्वयं अपना तुम बोझ सँभालो।
यदि लदे फिरे, यों ही तो पछताओगे,
शव मात्र आप अपना तुम रह जाओगे।
यह नहीं मात्र अपकीर्ति, अनय की अति है,
जानें कैसे सहती यह दृश्य प्रकृति है?
उद्देश्य जन्म का नहीं कीर्ति या धन है,
सुख नहीं, धर्म भी नहीं, न तो दर्शन है।
विज्ञान, ज्ञान-बल नहीं, न तो चिन्तन है,
जीवन का अन्तिम ध्येय स्वयं जीवन है।
सबसे स्वतंत्र यह रस जो अनघ पियेगा,
पूरा जीवन केवल वह वीर जियेगा।
–रामधारी सिंह ‘दिनकर’