सूरज पर कविता – सुकमोती चौहान “रुचि

सूरज पर कविता – सुकमोती चौहान “रुचि

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लेखनी मेरी चलती रहना
जन-जन की वाणी बनकर
मधुर संगीत घोलती रहना
उजड़े जीवन की नीरसता में।
छा जाना मधुमास बनकर
पतझड़ की वीरानी में।

तुम्हें करनी है यात्रा
जीवन के अवसान तक
साँसों में समा
विश्वपटल की शिला पर
उकेरनी है तुम्हें
यथार्थ का चित्र।

दीन दुखियों के आँसू में डूब
अलापना है पीर की गहराई
तुम्हें पढ़नी पड़ेगी
मूक नैनों के रुखे भाव
बड़े गहरे हैं अंदरुनी घाव।

खोकर अपना वजूद
जल, दीप की तरह
समाज को दिखा राह
सुख साधन व सम्मान
सम अवसर हो उपलब्ध।
व्यवस्था के नाम पर
कुचला न जाए
फिर कोई एकलव्य।

छेड़,ओजस्वी तान
ला,ऐसी सुधा वृष्टि
मुरझाई कली भी
हो जाए हरी-भरी
रग-रग में भर जाए चेतना
चल पड़े कदम सत्य पथ पर
स्वार्थ ,मोह,राग,द्वेश त्यागकर।

कितने काम पड़े हैं अधूरे
सारे कर्तव्य करने हैं पूरे
मोड़ना है वह संस्कार की धार
बह चली जो पश्चिम की ओर
सींचना है भारत वसुंधरा को
लाकर वैचारिक परिवर्तन की नीर।

उठानी है तुम्हें वह
सदियों से दबी आवाज़
कुप्रथाओं को मिटा
विसंगति की भंवर से
निकालना है भव -नाव
और बसाना है सुराज
जिस पर हो भारतीय होने का नाज।

दुनिया की चकाचौंध में
भूल न जाना तू लक्ष्य
वरना,जग हो जायेगा भ्रष्ट
मिट जायेगा वैभव – ए – भवन
खो जायेगा चैन- ए- अमन
उजड़ जायेगा वतन – ए – चमन
सजग हो तू प्रण ले।
मानवता प्रतिष्ठित कर दे,
खोई स्वाभिमान जगा दे।

हे लेखनी! तू सदा रह प्रयास रत
बूँद – बूँद से भरता है घट
तू बहती रह सर्व कल्याण हेतु
बनकर दो वैषम्य का सेतु
तुम्हारी तप से होगी
कविता- भागीरथी
देवलोक से अवतरित
उस कविता की छींटें भी
दे सदा कोई सीख
मलिन मन हो जाए पावन
धरा यह लगे मधुवन।

तुम्हारी आह्वान से हो
जागरण क्रांति का सूत्रपात
तेरी मुखरित स्वर से हो
सर्वोदय का नव प्रभात
धरती की कण-कण से
सद्भावना की सुगंध आये
नील गगन में परिंदे
गुणों का सुयश गायें।

सुकमोती चौहान “रुचि”

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