Tag: मकर संक्रांति पर कविता इन हिंदी

  • मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

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    मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    मगर संक्रांति आई है।

    मकर संक्रांति आई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    उठें आलस्य त्यागें हम, सँभालें मोरचे अपने ।

    परिश्रम से करें पूरे, सजाए जो सुघर सपने |

    प्रकृति यह प्रेरणा देती ।

    मधुर संदेश लाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    महकते ये कुसुम कहते कि सुरभित हो हमारा मन ।

    बजाते तालियाँ पत्ते सभी को बाँटते जीवन ॥

    सुगंधित मंद मलयज में,

    सुखद आशा समाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    समुन्नत राष्ट्र हो अपना,अभावों पर विजय पाएँ।

    न कोई नग्न ना भूखे,न अनपढ़ दीन कहलाएँ ॥

    करें कर्त्तव्य सब पूरे,

    यही सौगंध खाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    नहीं प्रांतीयता पनपे, मिटाएँ भेद भाषा के।

    मिटें अस्पृश्यता जड़ से, जलाएँ दीप आशा के ॥

    वरद गंगा-सी समरसता,

    यहाँ हमने बहाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है ।

    रचना शास्त्री

  • महापर्व संक्रांति / रवि रश्मि ‘ अनुभूति ‘

    महापर्व संक्रांति / रवि रश्मि ‘ अनुभूति ‘

    महापर्व संक्रांति / रवि रश्मि ‘ अनुभूति ‘

    मधुर – मृदु बोल संक्रांति पर , तिल – गुड़ – लड्डू के खाओ
    मिलजुलकर सभी प्रेम – प्यार , समता , सौहार्द बढ़ाओ
    महापर्व संक्रांति लाए सदा , खुशहाली चहुँ ओर ,
    पतंग उड़ाओ , शुभकामनाएँ लेते – देते जाओ ।

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    आया – आया करो स्वागत , पर्व संक्रांति का महान
    सपने ऊँचे सजाकर तुम , छू लो विस्तृत आसमान
    आशाओं की उड़े पतंग , थामो विश्वासों की डोर ,
    पुण्य कमाओ आज सभी , देकर प्रेम से कुछ भी दान ।

    कितना बढ़िया पावन , मनमोहक है , खुशी का त्योहार
    अफ़सोस ! आता नहीं मनोहर , यह त्योहार बार – बार
    ख़ुशबू ही ख़ुशबू फैली जा रही , अब तो चारों ओर ,
    गन्ने – रस की खीर , तिल – गुड़ के लड्डू होंगे तैयार ।

    अन्य राज्यों के साथ अब तो , पंजाब भी सराबोर
    गूँजता जा रहा लोहड़ी के , संगीत का मधुर शोर
    सुन्दर मुंदरिए मनोहर गाना , सबको ही है भाता ,
    भंगड़े – गिद्दे के साथ , थामते सब पतंग की डोर ।

    रवि रश्मि ‘ अनुभूति ‘

  • कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    ठिठुरन सी लगे ,
    सुबह के हल्के रंग रंग में ।
    जकड़न भी जैसे लगे ,
    देह के हर इक अंग में ।।

    कागजी तितली / डी कुमार –अजस्र

    उड़ती सी लगे,
    धड़कन आज आकाश में।
    डोर भी है हाथ में,
    हवा भी है आज साथ में।

    पर कागजी तितली…..
    लगी सहमी सी
    उड़ने की शुरुआत में ।
    फैलाये नाजुक पंख ,
    थामा डोर का छोर…
    हाथ का हुआ इशारा,
    लिया डोर का सहारा …
    डोली इधर से उधर,
    गयी नीचे से ऊपर
    भरी उमंग से ,
    उड़ने लगी
    जब हुई उड़ती तितलियों के ,
    साथ में ,
    बतियाती जा रही है ,
    पंछियों के पँखों से ….
    होड़ सी ले रही है,
    ज्यों आसमानी रंगो से
    हुई थोड़ी अहंकारी,
    जब देखी अपनी होशियारी ।
    था दृश्य भी तो मनोहारी,
    ऊँची उड़ान थी भारी ।

    डोर का भी रहा सहारा ,
    हाथ करता रहा इशारा ,
    तभी लगी जाने किसकी नजर ,
    एक पल में जैसे थम गया प्रहर ,
    लग रहे थे तब हिचकोले ,
    यों लगा जैसे संसार डोले ।

    डोर से डोर थी ,
    अब कट गयी ।
    इशारे की बिजली भी ,
    झट से गयी ।
    अब तो हवा भी न दे पायी सहारा
    घड़ी दो घड़ी का था ,
    अब खेल सारा ।
    ऊँची ही ऊँची उड़ने वाली ,
    अब नीचे ही नीचे आयी ।
    जो आँखे मदमा रही थी ,
    अब तक…..
    उनमें अंधियारी थी छायी ।

    तभी उसे लगा ,
    अचानक एक तेज झटका
    डोर लगी तनी सी,
    लगे ऐसा जैसे मिल गया ,
    जो सहारा था सटका।
    डोर का पुनः मिल रहा था ,
    ‘ अजस्र ‘ सहारा ।
    हाथ और थे पर ,
    मिल रहा था बेहतर इशारा ।
    फिर उडी आकाश में ,
    तब बात समझ ये आई
    बिना सहारे ,बिना इशारे ,
    न होगी आसमानी चड़ाई ।
    जीवन सार समझ आया तो,
    वो हवा में और अच्छे से लहराई।

     ✍️✍️ *डी कुमार –अजस्र (दुर्गेश मेघवाल, बून्दी/राज.)
  • मकर संक्रान्ति पर सुमित्रानंदन पंत की कविता

    मकर संक्रान्ति पर सुमित्रानंदन पंत की कविता

    14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर (जाता हुआ) होता है। इसी कारण इस पर्व को ‘उतरायण’ (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है। और इसी दिन मकर संक्रान्ति पर्व मनाया जाता है. जो की भारत के प्रमुख पर्वों में से एक है। 

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    सुमित्रानंदन पंत

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!

    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे, स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    जन पर्व मकर संक्रांति आज

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!

    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे, स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    सिर पर है चँदवा शीशफूल…

    सिर पर है चँदवा शीशफूल,
    कानों में झुमके रहे झूल,
    बिरिया, गलचुमनी, कर्णफूल।

    माँथे के टीके पर जन मन,
    नासा में नथिया, फुलिया, कन,
    बेसर, बुलाक, झुलनी, लटकन।

    गल में कटवा, कंठा, हँसली,
    उर में हुमेल, कल चंपकली।
    जुगनी, चौकी, मूँगे नक़ली।

    बाँहों में बहु बहुँटे, जोशन,
    बाजूबँद, पट्टी, बाँक सुषम,
    गहने ही गँवारिनों के धन!

    कँगने, पहुँची, मृदु पहुँचों पर
    पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर,
    चूड़ियाँ, फूल की मठियाँ वर।

    हथफूल पीठ पर कर के धर,
    उँगलियाँ मुँदरियों से सब भर,
    आरसी अँगूठे में देकर

    वे कटि में चल करधनी पहन

    वे कटि में चल करधनी पहन…
    वे कटि में चल करधनी पहन,
    पाँवों में पायज़ेब, झाँझन,
    बहु छड़े, कड़े, बिछिया शोभन,

    यों सोने चाँदी से झंकृत,
    जातीं वे पीतल गिलट खचित,
    बहु भाँति गोदना से चित्रित।

    ये शत, सहस्र नर नारी जन
    लगते प्रहृष्ट सब, मुक्त, प्रमन,
    हैं आज न नित्य कर्म बंधन!

    विश्वास मूढ़, निःसंशय मन,
    करने आये ये पुण्यार्जन,
    युग युग से मार्ग भ्रष्ट जनगण।

    इनमें विश्वास अगाध, अटल,
    इनको चाहिए प्रकाश नवल,
    भर सके नया जो इनमें बल!

    ये छोटी बस्ती में कुछ क्षण
    भर गये आज जीवन स्पंदन,
    प्रिय लगता जनगण सम्मेलन।