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मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

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मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

मगर संक्रांति आई है।

मकर संक्रांति आई है।

मिटा है शीत प्रकृति में

सहज ऊष्मा समाई है।

उठें आलस्य त्यागें हम, सँभालें मोरचे अपने ।

परिश्रम से करें पूरे, सजाए जो सुघर सपने |

प्रकृति यह प्रेरणा देती ।

मधुर संदेश लाई है।

मिटा है शीत प्रकृति में

सहज ऊष्मा समाई है।

महकते ये कुसुम कहते कि सुरभित हो हमारा मन ।

बजाते तालियाँ पत्ते सभी को बाँटते जीवन ॥

सुगंधित मंद मलयज में,

सुखद आशा समाई है।

मिटा है शीत प्रकृति में

सहज ऊष्मा समाई है।

समुन्नत राष्ट्र हो अपना,अभावों पर विजय पाएँ।

न कोई नग्न ना भूखे,न अनपढ़ दीन कहलाएँ ॥

करें कर्त्तव्य सब पूरे,

यही सौगंध खाई है।

मिटा है शीत प्रकृति में

सहज ऊष्मा समाई है।

नहीं प्रांतीयता पनपे, मिटाएँ भेद भाषा के।

मिटें अस्पृश्यता जड़ से, जलाएँ दीप आशा के ॥

वरद गंगा-सी समरसता,

यहाँ हमने बहाई है।

मिटा है शीत प्रकृति में

सहज ऊष्मा समाई है ।

रचना शास्त्री

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