यह कैसा लोकतंत्र – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार “अंजुम”
यह कैसा लोकतन्त्र
यह कैसी आजादी
दिखती नहीं मानवता
खो रही सामाजिकता
मानव के चारों ओर
फैल रही भयावहता
असफल होता जीवन
सरकता , सिसकता जीवन
पनपता अपराध
करता कुठाराघात
शाम कहाँ हो पता नहीं
कल का भरोसा नहीं
तोड़ता नियमों को
आदर्शों की धज्जियां उड़ाता
चारों ओर फैलता अँधेरा
सोचने मजबूर करता
यह कैसा लोकतन्त्र
यह कैसी आजादी
शिक्षा बन गया है व्यवसाय
शिक्षक हो गए हैं पेशेवर
सरकारी अस्पताल हो गए हैं
दरिद्रों के घर
यातायात व्यवस्था चरमरा रही
आये दिन दुर्घटनायें हो रहीं
रक्षकों पर नहीं रहा विश्वास
घात लगाए बैठी है ये आस
राह दिखती नहीं
मंजिल का पता नहीं
लोग फिर भी रैंग रहे
बार – बार कह रहे
यह कैसा लोकतन्त्र
यह कैसी आजादी
लडकियां यहाँ सुरक्षित नहीं
इस असभ्य समाज में
फैलती आधुनिकता की गंदगी
चारों ओर गलियार में
छोटे कपड़ों ने स्थिति
और भी भयावह की है
युवा अपने नियंत्रण में नहीं रहा
बलात्कार इसकी परिणति हो गयी
गति पकड़ती अनैतिकता , अमानवता
असामाजिकता , छूटता भाईचारा
हर कोई कह रहा
यह कैसा लोकतन्त्र
यह कैसी आजादी
शॉर्टकट हो गया जरूरत
कल का इंतजार ख़त्म
डर के बीद जीत , कई बार
देती जीवन से हार
ये कैसा मुक्त व्यवहार
कहीं कोई लगाम नहीं
ना ही कोई मंजिल
ना कोई ठिकाना
कहाँ है जाना
अंत नहीं अंत नहीं
दिल बरबस कह उठता
यह कैसा लोकतन्त्र
यह कैसी आजादी