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यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर० कुंवर नारायण के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .

  • कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

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    कुंवर नारायण की लोकप्रिय कवितायेँ

    बीमार नहीं है वह / कुंवर नारायण

    बीमार नहीं है वह
    कभी-कभी बीमार-सा पड़ जाता है
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो सचमुच बीमार रहते हैं।

    किसी दिन मर भी सकता है वह
    उनकी खुशी के लिए
    जो मरे-मरे से रहते हैं।

    कवियों का कोई ठिकाना नहीं
    न जाने कितनी बार वे
    अपनी कविताओं में जीते और मरते हैं।

    उनके कभी न मरने के भी उदाहरण हैं
    उनकी ख़ुशी के लिए
    जो कभी नहीं मरते हैं।

    नीली सतह पर / कुंवर नारायण

    सुख की अनंग पुनरावृत्तियों में,
    जीवन की मोहक परिस्थितियों में,
    कहाँ वे सन्तोष
    जिन्हें आत्मा द्वारा चाहा जाता है ?

    शीघ्र थक जाती देह की तृप्ति में,
    शीघ्र जग पड़ती व्यथा की सुप्ति में,
    कहाँ वे परितोष
    जिन्हें सपनों में पाया जाता है ?

    आत्मा व्योम की ओर उठती रही,
    देह पंगु मिट्टी की ओर गिरती रही,
    कहाँ वह सामर्थ्य
    जिसे दैवी शरीरों में गाया जाता है ?

    पर मैं जानता हूँ कि
    किसी अन्देशे के भयानक किनारे पर बैठा जो मैं
    आकाश की निस्सीम नीली सतह पर तैरती
    इस असंख्य सीपियों को देख रहा हूँ
    डूब जाने को तत्पर
    ये सभी किसी जुए की फेंकी हुई कौड़ियाँ हैं
    जो अभी-अभी बटोर ली जाएँगी :
    फिर भी किसी अन्देशे से आशान्वित
    ये एक असम्भव बूँद के लिए खुली हैं,
    और हमारे पास उन अनन्त ज्योति-संकेतों को भेजती हैं
    जिनसे आकाश नहीं
    धरती की ग़रीब मिट्टी को सजाया जाता है ।

    एक अजीब दिन / कुंवर नारायण

    आज सारे दिन बाहर घूमता रहा

    और कोई दुर्घटना नहीं हुई।

    आज सारे दिन लोगों से मिलता रहा

    और कहीं अपमानित नहीं हुआ।

    आज सारे दिन सच बोलता रहा

    और किसी ने बुरा न माना।

    आज सबका यकीन किया

    और कहीं धोखा नहीं खाया।

    और सबसे बड़ा चमत्कार तो यह

    कि घर लौटकर मैंने किसी और को नहीं

    अपने ही को लौटा हुआ पाया।

    आँकड़ों की बीमारी / कुंवर नारायण

    एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
    गिनते गिनते जब संख्या
    करोड़ों को पार करने लगी
    मैं बेहोश हो गया

    होश आया तो मैं अस्पताल में था
    खून चढ़ाया जा रहा था
    आँक्सीजन दी जा रही थी
    कि मैं चिल्लाया
    डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
    यह हँसानेवाली गैस है शायद
    प्राण बचानेवाली नहीं
    तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
    इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
    पैदाइशी हक़ है वरना
    कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र

    बोलिए नहीं – नर्स ने कहा – बेहद कमज़ोर हैं आप
    बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप

    डाक्टर ने समझाया – आँकड़ों का वाइरस
    बुरी तरह फैल रहा आजकल
    सीधे दिमाग़ पर असर करता
    भाग्यवान हैं आप कि बच गए
    कुछ भी हो सकता था आपको –

    सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
    या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
    आपका बोलना
    मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
    इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
    हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
    तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
    आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
    शान्ति से काम लें
    अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे …..

    अचानक मुझे लगा
    ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
    बदल गई थी डाक्टर की सूरत
    और मैं आँकड़ों का काटा
    चीख़ता चला जा रहा था
    कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं

    एक हरा जंगल / कुंवर नारायण

    एक हरा जंगल धमनियों में जलता है।
    तुम्हारे आँचल में आग…
    चाहता हूँ झपटकर अलग कर दूँ तुम्हें
    उन तमाम संदर्भों से जिनमें तुम बेचैन हो
    और राख हो जाने से पहले ही
    उस सारे दृश्य को बचाकर
    किसी दूसरी दुनिया के अपने आविष्कार में शामिल कर लूँ

    लपटें एक नए तट की शीतल सदाशयता को छूकर लौट जाएँ।

    कमरे में धूप / कुंवर नारायण

     हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
    दीवारें सुनती रहीं।
    धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
    किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।

    सहसा किसी बात पर बिगड़ कर
    हवा ने दरवाज़े को तड़ से
    एक थप्पड़ जड़ दिया !

    खिड़कियाँ गरज उठीं,
    अख़बार उठ कर खड़ा हो गया,
    किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
    पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
    मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

    धूप उठी और बिना कुछ कहे
    कमरे से बाहर चली गई।

    शाम को लौटी तो देखा
    एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
    अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
    पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
    सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
    आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

    कविता की ज़रूरत / कुंवर नारायण

    बहुत कुछ दे सकती है कविता
    क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
    ज़िन्दगी में

    अगर हम जगह दें उसे
    जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
    जैसे तारों को जगह देती है रात

    हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
    अपने अन्दर कहीं
    ऐसा एक कोना
    जहाँ ज़मीन और आसमान
    जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
    कम से कम हो ।

    वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
    एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
    कर सकता है
    कवितारहित प्रेम

    आदमी का चेहरा / कुंवर नारायण

    “कुली !” पुकारते ही

    कोई मेरे अंदर चौंका ।

    एक आदमी आकर खड़ा हो गया मेरे पास

    सामान सिर पर लादे

    मेरे स्वाभिमान से दस क़दम आगे

    बढ़ने लगा वह

    जो कितनी ही यात्राओं में

    ढ़ो चुका था मेरा सामान

    मैंने उसके चेहरे से उसे

    कभी नहीं पहचाना

    केवल उस नंबर से जाना

    जो उसकी लाल कमीज़ पर टँका होता

    आज जब अपना सामान ख़ुद उठाया

    एक आदमी का चेहरा याद आया

    कोलम्बस का जहाज / कुंवर नारायण


    बार-बार लौटता है
    कोलम्बस का जहाज
    खोज कर एक नई दुनिया,
    नई-नई माल-मंडियाँ,
    हवा में झूमते मस्तूल
    लहराती झंडियाँ।

    बाज़ारों में दूर ही से
    कुछ चमकता तो है −
    हो सकता है सोना
    हो सकती है पालिश
    हो सकता है हीरा
    हो सकता है काँच…
    ज़रूरी है पक्की जाँच।

    ज़रूरी है सावधानी
    पृथ्वी पर लौटा है अभी-अभी
    अंतरिक्ष यान
    खोज कर एक ऐसी दुनिया
    जिसमें न जीवन है − न हवा − न पानी −

    नई किताबें / कुंवर नारायण

    नई नई किताबें पहले तो
    दूर से देखती हैं
    मुझे शरमाती हुईं

    फिर संकोच छोड़ कर
    बैठ जाती हैं फैल कर
    मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर

    उनसे पहला परिचय…स्पर्श
    हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
    एक शुरुआत…

    धीरे धीरे खुलती हैं वे
    पृष्ठ दर पृष्ठ
    घनिष्ठतर निकटता
    कुछ से मित्रता
    कुछ से गहरी मित्रता
    कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
    कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
    कुछ पूरे परिवार की पसंद
    ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता

    फिर भी
    अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
    किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
    एक जीवन-संगिनी
    थोडी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
    आत्मीय किताब
    जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
    एक किताब की तरह पन्ना पन्ना
    और वह मुझे भी
    प्यार से मन लगा कर पढ़े…