Tag: Hindi poem on Makar Sankranti Pongal Magh Bihu

माघ कृष्ण पंचमी मकर संक्रांति, पोंगल, माघ बिहु : मकर संक्रान्ति (मकर संक्रांति) भारत का प्रमुख पर्व है। मकर संक्रांति (संक्रान्ति) पूरे भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है। पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है। वर्तमान शताब्दी में यह त्योहार जनवरी माह के चौदहवें या पन्द्रहवें दिन ही पड़ता है, इस दिन सूर्य धनु राशि को छोड़ मकर राशि में प्रवेश करता है। तमिलनाडु में इसे पोंगल नामक उत्सव के रूप में मनाते हैं जबकि कर्नाटक, केरल तथा आंध्र प्रदेश में इसे केवल संक्रांति ही कहते हैं। मकर संक्रान्ति पर्व को कहीं-कहीं उत्तरायण भी कहते हैं।14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर(जाता हुआ) होता है। इसी लिऐ ,उतरायण, (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है। ऐसा इस लिए होता है, की पृथ्वी का झुकाव हर 6,6माह तक निरंतर उतर ओर 6माह दक्षिण कीओर बदलता रहता है। ओर यह प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसी दिन होता है।

  • मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    patang-makar-sankranti

    मकर संक्रांति आई है / रचना शास्त्री

    मगर संक्रांति आई है।

    मकर संक्रांति आई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    उठें आलस्य त्यागें हम, सँभालें मोरचे अपने ।

    परिश्रम से करें पूरे, सजाए जो सुघर सपने |

    प्रकृति यह प्रेरणा देती ।

    मधुर संदेश लाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    महकते ये कुसुम कहते कि सुरभित हो हमारा मन ।

    बजाते तालियाँ पत्ते सभी को बाँटते जीवन ॥

    सुगंधित मंद मलयज में,

    सुखद आशा समाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    समुन्नत राष्ट्र हो अपना,अभावों पर विजय पाएँ।

    न कोई नग्न ना भूखे,न अनपढ़ दीन कहलाएँ ॥

    करें कर्त्तव्य सब पूरे,

    यही सौगंध खाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है।

    नहीं प्रांतीयता पनपे, मिटाएँ भेद भाषा के।

    मिटें अस्पृश्यता जड़ से, जलाएँ दीप आशा के ॥

    वरद गंगा-सी समरसता,

    यहाँ हमने बहाई है।

    मिटा है शीत प्रकृति में

    सहज ऊष्मा समाई है ।

    रचना शास्त्री

  • मकर संक्रान्ति पर सुमित्रानंदन पंत की कविता

    मकर संक्रान्ति पर सुमित्रानंदन पंत की कविता

    14 जनवरी के बाद से सूर्य उत्तर दिशा की ओर अग्रसर (जाता हुआ) होता है। इसी कारण इस पर्व को ‘उतरायण’ (सूर्य उत्तर की ओर) भी कहते है। और इसी दिन मकर संक्रान्ति पर्व मनाया जाता है. जो की भारत के प्रमुख पर्वों में से एक है। 

    patang-makar-sankranti

    सुमित्रानंदन पंत

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!

    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे, स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    जन पर्व मकर संक्रांति आज

    जन पर्व मकर संक्रांति आज
    उमड़ा नहान को जन समाज
    गंगा तट पर सब छोड़ काज।

    नारी नर कई कोस पैदल
    आरहे चले लो, दल के दल,
    गंगा दर्शन को पुण्योज्वल!

    लड़के, बच्चे, बूढ़े, जवान,
    रोगी, भोगी, छोटे, महान,
    क्षेत्रपति, महाजन औ’ किसान।

    दादा, नानी, चाचा, ताई,
    मौसा, फूफी, मामा, माई,
    मिल ससुर, बहू, भावज, भाई।

    गा रहीं स्त्रियाँ मंगल कीर्तन,
    भर रहे तान नव युवक मगन,
    हँसते, बतलाते बालक गण।

    अतलस, सिंगी, केला औ’ सन
    गोटे गोखुरू टँगे, स्त्री जन
    पहनीं, छींटें, फुलवर, साटन।

    बहु काले, लाल, हरे, नीले,
    बैगनीं, गुलाबी, पट पीले,
    रँग रँग के हलके, चटकीले।

    सिर पर है चँदवा शीशफूल…

    सिर पर है चँदवा शीशफूल,
    कानों में झुमके रहे झूल,
    बिरिया, गलचुमनी, कर्णफूल।

    माँथे के टीके पर जन मन,
    नासा में नथिया, फुलिया, कन,
    बेसर, बुलाक, झुलनी, लटकन।

    गल में कटवा, कंठा, हँसली,
    उर में हुमेल, कल चंपकली।
    जुगनी, चौकी, मूँगे नक़ली।

    बाँहों में बहु बहुँटे, जोशन,
    बाजूबँद, पट्टी, बाँक सुषम,
    गहने ही गँवारिनों के धन!

    कँगने, पहुँची, मृदु पहुँचों पर
    पिछला, मँझुवा, अगला क्रमतर,
    चूड़ियाँ, फूल की मठियाँ वर।

    हथफूल पीठ पर कर के धर,
    उँगलियाँ मुँदरियों से सब भर,
    आरसी अँगूठे में देकर

    वे कटि में चल करधनी पहन

    वे कटि में चल करधनी पहन…
    वे कटि में चल करधनी पहन,
    पाँवों में पायज़ेब, झाँझन,
    बहु छड़े, कड़े, बिछिया शोभन,

    यों सोने चाँदी से झंकृत,
    जातीं वे पीतल गिलट खचित,
    बहु भाँति गोदना से चित्रित।

    ये शत, सहस्र नर नारी जन
    लगते प्रहृष्ट सब, मुक्त, प्रमन,
    हैं आज न नित्य कर्म बंधन!

    विश्वास मूढ़, निःसंशय मन,
    करने आये ये पुण्यार्जन,
    युग युग से मार्ग भ्रष्ट जनगण।

    इनमें विश्वास अगाध, अटल,
    इनको चाहिए प्रकाश नवल,
    भर सके नया जो इनमें बल!

    ये छोटी बस्ती में कुछ क्षण
    भर गये आज जीवन स्पंदन,
    प्रिय लगता जनगण सम्मेलन।

  • मकर से ऋतुराज बसंत (दोहा छंद)-बाबू लाल शर्मा

    मकर से ऋतुराज बसंत (दोहा छंद)-बाबू लाल शर्मा


    सूरज जाए मकर में, तिल तिल बढ़ती धूप।
    फसले सधवा नारि का, बढ़ता रूप स्वरूप।।
    .
    पशुधन कीट पतंग भी, नवजीवन मम देश।
    वन्य जीव पौधे सभी, कली खिले परिवेश।।
    .
    तितली भँवरे मोर पिक, करते हैं मनुहार।
    ऋतु बसंत के आगमन, स्वागत करते द्वार।।
    .
    मानस बदले वसन ज्यों, द्रुम दल बदले पात।
    ऋतु राजा जल्दी करो, बिगड़ी सुधरे बात।।
    .
    शीत उतर राहत मिले ,होवें शुभ सब काज।
    उम्मीदें ऋतुराज से, करते हैं सब आज।।
    .
    ऋतु राजा भी आ रहे, अब तो आओ कंत।
    विरहा के मनराज हो, मेरे मनज बसंत।।
    .
    रथी उत्तरायण चला, अब तो प्रिय रविराज।
    प्रिये मिलन को बावरी, पाती लिखती आज।।
    .
    प्रियतम आओ तो प्रिये, ऋतु बसंत के साथ।
    सत फेरों की याद कर, वैसे पकड़ें हाथ।।
    .
    कंचन निपजे देश में, कनक विहग सम्मान।
    चाँदी सी धरती तजी, परदेशी मिथ शान।।
    .
    आजा प्रियतम देश में, खूब मने संक्रांति।
    माटी अपने देश हित, मिटा पिया मन भ्रांति।।
    .
    प्रीतम तिल तिल जोड़ती, लड्डू बनते आज!
    बाँट निहारूँ साँवरे, तकूँ पंथ आवाज।।

    © बाबू लाल शर्मा “बौहरा” , विज्ञ