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  • तुलसी विवाह पर कविता

    तुलसी विवाह पर कविता पौराणिक कथा पर आधारित है और वृंदा और भगवान विष्णु के अवतार जालंधर की कहानी को प्रस्तुत करती है।

    गंगा द्वारा श्रीहरि को श्राप देने से लक्ष्मी को धरती पर दो रूपों में जन्म लेना पड़ा – एक वृंदा के रूप में, जिसने कठिनाइयों का सामना किया और दूसरी पद्मा नदी के रूप में, जो विश्व का उद्धार करती है। भगवान विष्णु ने वृंदा को समझाया कि वह लक्ष्मी का ही अवतार है, और इस भक्ति-निष्ठा के कारण वृंदा का तुलसी के पौधे के रूप में प्रतिष्ठान हुआ। शालिग्राम और तुलसी का विवाह हरि और तुलसी के संगम का प्रतीक बन गया, जो भक्ति में सच्चे प्रेम और समर्पण का प्रतीक है।

    यह कथा भगवान विष्णु के माया, करुणा, और भक्तों के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती है, और यह बताती है कि किस तरह सच्ची भक्ति का फल सदैव सकारात्मक होता है।

    तुलसी विवाह

    तुलसी संग हरि का बंधन,
    प्रेम-भक्ति का अनुपम संगम।
    शालिग्राम संग हुई तुलसी,
    बनी हरि के मन की अभिलाषा।

    देवी तुलसी, पावन पौधा,
    जिसमें है हरि की महिमा।
    सच्ची निष्ठा और प्रेम का,
    यह है अमर प्रतीक व आश्रय।

    एकादशी का पावन अवसर,
    हरि संग तुलसी का बंधन सुंदर।
    व्रत, पूजा, मंगल गान,
    हर मन में प्रेम का संचार।

    भगवान के संग तुलसी का मेल,
    दूर करे जीवन के कष्टों का खेल।
    भक्तों के मन में उमंग जगाए,
    हर दिन सच्ची भक्ति को बढ़ाए।

    हरि संग तुलसी का यह विवाह,
    धर्म, भक्ति का महान गाथा।
    इससे मिलता आशीर्वाद अपार,
    तुलसी-शालिग्राम का पवित्र अधिकार।

    श्रीमती मीना पटेल

    तुलसी विवाह पर कविता

    वैकुण्ठ में गंगा ने,
    दिया श्री को श्राप,
    धरती पर जन्मेंगी लक्ष्मी,
    दो रूप के साथ,
    एक रूप में वृंदा बनकर,
    सहे कष्ट अपार,
    दूजे रूप में पद्म नदी बन,
    करे जगत उद्धार,
    हरि जानकर घटना यह,
    क्षोभ करे अपार,
    गंगा की इस करनी पर,
    लगा रहे फटकार,
    लक्ष्मी को भी फिर आस दिलाकर,
    हरि करे उपकार,
    वृंदा बनकर तू जन्में,
    हर मेरा ही अवतार,
    जालंधर दानव भी हैं,
    मेरा ही एक रूप,
    चिंता नाकर हे देवी,
    तू लौटे शीघ्र स्वरूप,
    वृंदा देवी मय दानव की,
    बेटी बनकर जन्मी,
    जालंधर से ब्याह हुआ,
    जैसी निर्धारित करनी,
    हरि उपासक वृंदा ने,
    सब जतन किए हजार,
    पति रहे सबल कुशल,
    यही हृदय विचार,
    जालंधर की करनी से,
    आहत था संसार,
    पर सतीत्व की रक्षा से,
    वो बच जाए हर बार,
    तब हरि ने फिर माया रच,
    रूप लिए एक बार,
    जालंधर का भेष बनाकर,
    सतीत्व किया बेकार,
    सत्य जानकर नारायण की,
    आहत हुई वो नार,
    पाषाण हो जाए परमेश्वर,
    यह न्याय की हैं पुकार,
    तब हरि ने वृंदा को,
    समझाया सत्य विचार,
    तू वृंदा कोई और नही,
    है लक्ष्मी का अवतार,
    तेरी भक्ति निष्ठा से,
    हुआ आज प्रसन्न,
    तू तुलसी का पौधा हो,
    मैं पाषण बनूँ इस क्षण,
    वो पाषण इस जग में,
    शालिग्राम कहाए,
    तुलसी संग एकादशी को,
    हरि विवाह रचाए।