थूकना और चाटना पर कविता
उसके मुँह के सारे थूंक
अब सूख चुके हैं
ढूंढ-ढूंढकर वह
पहले थूंके हुए जगहों पर जाकर
उन थूंको को चाटकर
फिर से गीला कर रहा है अपना मुँह
उन्हें अपने किए ग़लती
का एहसास हो चुका है अब
बेहद पछतावा है उसे
कि आखिर बात-बात पर
क्यूं थूंका करता था ?
आख़िर उसे ही अब
अपना ही थूंका हुआ
चाटना पड़ रहा है
बड़ी मुसीबत है उसके सामने
कि कब-कब और कहाँ-कहाँ अपना थूंका हुआ चाटे
कि कब-कब और कहाँ-कहाँ खुद पर दूसरों को थूंकने से रोके।
लोग थूकते ही जा रहे हैं
आज वह थूंको से घिरा हुआ है
थूंको से भरा हुआ है
थूंको में डूबा हुआ है
अब सूख चुके हैं
उसके मुँह के सारे थूंक
जो वक्त-बेवक़्त थूंका करता था दूसरों पर।
— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479