यहाँ पर विनोद सिल्ला की व्यंग्य कवितायेँ प्रकाशित की गयी हैं आपको कौन सी अच्छी लगी कमेंट कर जरुर बताएँगे

दो-दो भारत
वंचितों की बस्तियां इस ओर हैं,
सम्पन्नों की बस्तियां उस ओर हैं,
उधर महके सम्पन्नता में छोर-छोर,
इधर अभावग्रस्त है हर कोर-कोर,
उधर पकवानों की महक उठी है,
इधर पतीली उपेक्षित सी पड़ी है,
उधर पालतू कुत्ते भी गोश्त खाते हैं,
इधर के बच्चे कुपोषित हो जाते हैं,
वो नित छोड़ते हैं झूठन थाली में,
इधर फाके हो जाते हैं कंगाली में,
उधर अय्याशी पे खर्च हो जाता है,
इधर बालक भूखा ही सो जाता है,
सिल्ला इस धरा पे दो-दो भारत हैं,
इधर झुग्गियां उधर ऊंची इमारत हैं,
-विनोद सिल्ला©
संवेदनहीन क्यों?
पशु आपस में
लङते हैं खूब
पंछी भी आपस में
भिङते हैं खूब
कीट-पतंग भी
करते हैं संघर्ष
इनके गुण
इनके स्वभाव
इनकी आदत
इनका खानपान
इनकी प्रवृत्ति
अलग-अलग हैं
पर इनमें
छूत-अछूत
अगङे-पिछङे
हिन्दू-मुस्लिम
अमीर-गरीब
छोटे-बङे
श्वेत-अश्वेत
का भेद नहीं
मात्र इन्सान ही
है संवेदनहीन
क्यों????? -विनोद सिल्ला
अल्लाहदीन का चिराग
अल्लाहदीन का वही चिराग
लग जाए जो मेरे हाथ
इलाज करूंगा एक मिनट मे
आतंकवाद हुआ लाइलाज
भ्रष्टाचार पे रोक होगी
हर नागरिक जाएगा जाग
कन्या भ्रुण हत्या बंद होगी
सुनवा दूंगा ऐसा राग
महकेंगी अमन की फसलें
उपजे शान्ति की सब्जी साग
नैतिक मूल्य स्थापित होंगे
पवित्र होंगे हंस और काग
जाति पांति को खत्म करूंगा
सब हो जांएगे बेलाग
हिंदू-मुस्लिम न होगा कोई
बुझ जाए साम्प्रदायिक आग
यौन शोषण नही होएगा
महक उठेगा प्रेम पराग
सिल्ला भाषावाद मिटेगा
व्यवस्थित होगा हर विभाग
-विनोद सिल्ला
छोटी मछली
मैं हूँ एक छोटी सी मछली।
सपनों के सागर में मचली।।
सोचा था सारा सागर मेरा,
ले आजादी का सपना निकली।।
बङे- बङे मगरमच्छ वहां थे,
था आजादी का सपना नकली।।
बङी मछली छोटी को खाए,
इनका राग इन्हीं की ढफली।।
छोटी का न होता गुजारा,
बङी खाती है काजू कतली।।
सिल्ला’ इस सोच में है डूबा,
भेद नहीं क्या असली नकली।।
-विनोद सिल्ला
मैं हूँ साक्षी
बन रहे हैं
वक्त के
नए-नए सांचे
ढल रहा है इंसान
इन नए-नए
सांचों में
गुजर रहा है इंसान
परिवर्तन के दौर से
बदल रही हैं
पुरातन परम्पराएं
आमजन की मान्यताएं
सबकी आकांक्षाएं
हो रहे हैं परिवर्तन
सुखद व दुखद
मैं हूँ साक्षी
इन परिवर्तनों का -विनोद सिल्ला©
शहीद हो गई
वो सैनिक
हो गया शहीद
सीमा पर अपना
कर्तव्य निभाते-निभाते
सिर्फ वही
शहीद नहीं हुआ
शहीद हो गई
सदा के लिए
एक घर की खुशियाँ
शहीद हो गया
दूधमुंहे नवजातों के
सिर का साया
शहीद हो गई
बूढ़े मां-बाप की
बुढा़पे की लाठी
शहीद हो गई
उन राजनेताओं की
शर्मो-लाज
जो शहीद की
अंतेष्ठी में भी
साध रहे हैं वोट-बैंक -विनोद सिल्ला©
चुनाव की तैयारी
बस्तियां
जल रही थी
जय श्री राम
अल्लाह हू अकबर
की आवाजें
सुनाई दे रहे थी
सभी राजनैतिक दल
एक-दूसरे को
दंगों के लिए
दोषी ठहरा रहे थे
ये सब
निकट भविष्य के
चुनाव की
तैयारी चल रही थी
-विनोद सिल्ला©
धर्म की खिचड़ी
सुबह-सुबह
पड़ती है कानों में
गुरद्वारे से आती
गुरबाणी की आवाज
तभी हो जाती है शुरु
मंदिर की आरती
दूसरी ओर से
आती हैं आवाजें
अजानों की
नहीं समझ पाता
किस से
मिल रही है
क्या शिक्षा
सब आवाजें मिलकर
बना डालती हैं
धर्म की खिचड़ी
–विनोद सिल्ला©
हवा का रुख मोङने वाले
हर लचकदार वस्तु
अपने आपको
हवा के रुख के साथ
मोङ लेती है
कुछ एक
सख्त प्रवृति के
जिन्हें अक्सर
सूखे ठूँठ
अकङे हुए ठूँठ
कहा जाता है
जो सीधे खङे रहते हैं
अक्सर टूट जाते हैं
पर झुकते नहीं
उनका प्रयास
हवा के रुख को
मोङने का होता है
और जो इस प्रयास में
कामयाब हो जाते हैं
उन्हें लोग
कार्ल मार्क्स
नैल्सन मण्डेला
अम्बेडकर
कहने लगते हैं
-विनोद सिल्ला
जीत गया चुनाव
जीत कर चुनाव
किए वादों की
करते-करते वादाखिलाफी
बीत गए साढे़ चार साल
अब नेता जी को
आए पसीने
पृथ्वी देने लगी दिखाई
छोटी-सी
लगने लगा
निर्वाचन क्षेत्र भयावह
दरकता नजर आया
जनसमर्थन का किला
तो खोल दिए
उस तहखाने के मुंह
जिसमें रखी थी
काली कमाई की
काली दौलत
कुछ टिकट के बदले
हाईकमान को दे दी
कुछ को मीडिया कर्मी
चाट गए
कुछ को बूथ कैप्चर
आपस में बांट गए
और नेता जी
फिर से चुनाव जीत गए।
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-विनोद सिल्ला©
शूरवीर
शूरवीर वह नहीं
जो करके नरसंहार
जीत ले कलिंग-युद्ध
जो बहा दे
लहू का दरिया
जो मचा दे चहूंओर
त्राही-त्राही
जो कर दे अनाथ
अबोध बच्चों को
जो कर दे विधवा
नवयुवतियों को
जो छीन ले
बुढ़ापे की लाठी
वृद्ध माता-पिता से
निसंदेह वह
शूरवीर है जो
फैला दे अमन संदेश
पूरी दुनिया में
बुद्ध बनकर
जो दे शिक्षा
मानव-मानव
एक समान होने की
-विनोद सिल्ला
द्रौणों की फौज
यहाँ द्रौणों की फौज हो गई।
अर्जुनों की भी मौज हो गई।।
एकलव्य को नहीं मिला प्रवेश,
डोनेशन वाले ही बने विशेष,
शिक्षा नीलाम यहाँ रोज हो गई।।
घर बैठे टैक्नीकल कोर्स करिए,
पर नोन अटैंडिंग के पैसे भरिए,
प्रतिभा क्यों यहाँ बोझ हो गई।।
फेल नहीं करना है यहाँ कोई,
लम्बी तान के व्यवस्था सोई,
भ्रष्ट तरीकों की खोज हो गई।।
शिक्षा भी आज व्यापार बन गई,
पूंजीपति का अधिकार बन गई,
बस जेब भरने की सोच हो गई।।
सिल्ला’ भी इसकी एक इकाई है,
न राहत कहीं भी नजर आई है,
सारी व्यवस्था विनोद हो गई।।
-विनोद सिल्ला©
गवाही शंबुक रीषि की
गवाही शंबुक रीषि की
कटी गर्दन
एकलव्य का
कटा अंगूठा
टूटे व जीर्ण-शीर्ण
बौद्ध स्तूप
खंडित बुद्ध की प्रतिमाएं
धवस्त तक्षशिला व नालंदा
तहस-नहस
बौद्ध साहित्य
धूमिल बौद्ध इतिहास
दे रहा है गवाही
कितना असहिष्णु
कितना भयावह
था अतीत
-विनोद सिल्ला©
जंगली कौन
कितना भाग्यशाली था
आदिमानव
तब न कोई अगड़ा था
न कोई पिछड़ा था
हिन्दू-मुसलमान का
न कोई झगड़ा था
छूत-अछूत का
न कोई मसला था
अभावग्रस्त जीवन चाहे
लाख मजबूर था
पर धरने-प्रदर्शनों से
कोसों दूर था
कन्या भ्रूण-हत्या का
पाप नहीं था
किसी ईश्वर-अल्लाह का
जाप नहीं था
न भेदभावकारी
वर्णव्यवस्था थी
मानव जीवन की वो
मूल अवस्था थी
मूल मानव को ।
जंगली कहने वालो
जंगली कौन है
पता लगा लो। -विनोद सिल्ला
खोई हुई आजादी
मैं ढूंढ रहा हूँ
अपनी खोई आजादी
मजहबी नारों के बीच
न्याधीश के दिए निर्णयों में
संविधान के संशोधनों में
लालकिले की
प्रचीर से दिए
प्रधानमंत्री के भाषणों में
चुनाव पूर्व
राजनेताओं द्वारा
किए वादों में
लेकिन नित के
ऑनर कीलिंग के समाचार
अनियन्त्रित-हिंसक
दंगाई भीड
उजड़ती झुग्गी-बस्तियाँ
यौन पीड़िता की चीखें
दे रही हैं
सशक्त गवाही
कहीं भी
आजादी न होने की
-विनोद सिल्ला©
कमाल के समीक्षक
एक मेरा मित्र
बात-बात पर
कोसता है, संविधान को
ठहराता है, इसे कॉपी-पेस्ट।
एक दिन मैंने
पूछ ही लिया,
कितनी बार पढ़ा है, संविधान।
उसने कहा
एक बार भी नहीं।
कभी देखा है? दूर से
भारतीय संविधान
उसका जवाब था
कभी नहीं देखा।
न कभी पढ़ा,
न कभी देखा,
फिर भी, कर डाली
संविधान की समीक्षा।
कमाल के समीक्षक हैं।
-विनोद सिल्ला©