इसे भारत के स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों में बाल गंगाधर तिलक का नाम सबसे बड़ा सम्मान माना जाता है। उन्होंने हमारे देश को अंग्रेज़ों की गुलामी से मुशायरे में शामिल किया था। बाल गंगाधर तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि के चिक्कन गांव में जन्म हुआ था।
• द्वारकाप्रसाद गुप्त ‘रसिकेन्द्र’
जय बाल गंगाधर तिलक जय वीर भारत केसरी,
जय लोकमान्य, वदान्य महिमा है भुवन भर में भरी ।
पण्डितप्रवर, नवयुग प्रवर्तक, राष्ट्र के आधार जय,
जय पुण्य पारावार नैतिक ज्ञान के भण्डार जय !
जगमग जगत में ज्योति यश की है जगाती जीवनी,
मृत जाति को जीवित किया, दी शक्तिमय संजीवनी ।
यद्यपि कुनीति कुचक्र का, बन्धन लिये पीछे पड़ी ।
पर दासता की बेड़ियों की काट दी कड़ियां कड़ी !
भारत तरणि यह डूब जाती जो न होते साथ में,
लाए इसे तट पर तुम्हीं, पतवार लेकर हाथ में ।
गीता रहस्य प्रकाश से कर्तव्य पथ दरसा दिया,
फिर लहलहाई कर्म लतिका, वह अमृत बरसा दिया।
गजराज दुःशासन पछाड़ा भीम बल मृगराज हो,
अन्याय अत्याचार विहंगों को लथाड़ा बाज हो ।
कंटक कुलिश समझे कुसुम सम, स्वर्ग कारागार को,
जयमाल समझे शीश पर आती हुई तलवार को ।
जातीयता पर जान दी, जाने न अपनी आन दी,
दौड़ा रगों में रक्त फिर से, छेड़ ऐसी तान दी ।
रवि-बाल की छवि-लालिमा, तम-कलिमा को हर गई,
है एक विद्युत शक्ति की धारा हृदय में भर गई ।
साहस सुकृत बनता रहें, प्रभु के पदों के ध्यान से,
पिछड़ें नहीं अनुचर तुम्हारे, स्वत्व के मैदान से ।
जय भुवन भूषण कुशलता के केन्द्र वन्दे मातरम्,
जय तिलक तीनों लोक के, रसिकेन्द्र वन्दे मातरम् ।
वज्रपात ! पर मिटे
● माखनलाल चतुर्वेदी
वज्रपात ! मर मिटे हाय हम ! रोने दो, संहार हुआ,
कसक कलेजे काढ़ दुखी हैं, बुरे समय पर वार हुआ ।
नभ कंपित हो उठा, करोड़ों में यह हाहाकार हुआ,
वही हाथ से गिरा, भँवर में जो मेरा पतवार हुआ।
मैं ही हूँ, मुझे इकलौती ने, अपना जीवन-धन खोया,
रोने दो, मुझ हतभागिन ने अपना मन मोहन खोया ।
आधी रात करोड़ों बंधन, अन्यायों से झुकी हुई,
पराधीनता के चरणों पर, आँसू ढाले रुकी हुई।
अकुलाते – अकुलाते मैंने एक लाल उपजाया था,
था पंचानन ‘बाल’ खलों का एक काल उपजाया था ।
जिसने टूटे हुए देश के विमल प्रेम बंधन तोड़े,
कसे हुए मेरे अंगों के कुटिल काल-बंधन तोड़े ।
खड़ा हुआ निःशंक शिवानी पर बलि होना सिखलाया,
जहाँ सताया गया, वहाँ वह शीश उठा आगे आया।
बागी, दागी कहलाने पर, जरा न मन में मुरझाया,
अगणित कंसों ने सम्मुख सहसा श्रीकृष्ण खड़ा पाया ।
जहाँ पुकारा गया, वीर रण करने को तैयार रहा,
मातृभूमि के लिए लड़ाका, मरने को तैयार रहा।
‘तू अपराधी है तूने क्यों गाए भारत के गीत वृथा ?
तू ढोंगी बकता फिरता है तुच्छ देश की कीर्ति-कथा !
तुझ-सों का रहना ठीक नहीं, ले देता हूँ काला पानी’,
हे वृद्ध महर्षि ! हिला न सकी कायर जज की कुत्सित वाणी ।
क्यों आर्य-देश के तिलक चले, क्यों कमजोरों के जोर चले,
तुम तो सहसा उस ओर चले, यह भारत माँ किस ओर चले ?
शुचि प्रेम-बीज सब हृदयों में, गाली खाते-खाते बोया,
सद्भावों से उसको सींचा, उसका भारी बोझा ढोया ।
तुझको अब कष्ट नहीं देंगे, हाथों में झंडा ले लेंगे,
मांडले के क्या सूली के, कष्टों को सादर झेलेंगे।
इंग्लैंड नहीं नभ-मंडल में, हम तेरे हैं, हो आवेंगे,
तूने नरसिंह बनाए हैं, अपना तिलकत्व दिखावेंगे।
तू देख देश स्वाधीन हुआ, उस पर हम लाखों जिएँ-मरें,
बस इतना कहना मान तिलक, हम तेरे सिर पर तिलक करें।
मेरे जीते-जी पूरा स्वराज्य भारत पाए अरमान यही,
बस शान यही, अभिमान यहो, हम तीस कोटि की जान यही ।
लोकमान्य अनुपम तिलक
● सत्यनारायण कविरल
जय जय जय द्विजराज देश के सांचे नायक ।
यदपि प्रभासत वक्त्र सुधा नवजीवन दायक ||
दृग चकोर आराध्य राष्ट्र नभ प्रतिभा – भाषा ।
वंदनीय विस्तार विशारद ज्योत्स्ना आशा ।।
जय चितपावन, सद्भाव सों जग शुभचिन्तक प्रति पलक ।
शिव भारत भाल विशाल के लोकमान्य अनुपम तिलक ॥
देश-भक्ति स्वर्गीय गंग-आघात तीव्रतर ।
गंगाधर सम सह्यो अटल मन तुम गंगाधर ।।
नित स्वदेश हित निर्भय निर्मम नीति प्रकाशक ।
जय स्वराज्य संयुक्त शक्ति के पुण्य उपासक ॥
जय आत्म-त्याग अनुराग से उज्ज्वल उच्च उदाहरन ।
जय शिव संकल्प स्वरूप शुभ एकमात्र तारन तरन ।
कर्मयोग आचार्य आर्य आदर्श उजागर।
निर्मल न्याय निकुंज पुंज करुणा के सागर ।
सुदृढ़ सिंहगढ़ के सजीव ध्वज धर्म धुरन्धर ।
अद्भुत अनुकरणीय प्रेम के प्रकृत पुरन्दर ।।
प्राणोपम राष्ट्र प्रताप वह, अघ त्रिताप हर सुरसरी ।
जय जन सत्ता के छत्रपति महाराष्ट्र कुल केसरी ।।
मर्यादा पूरण स्वतंत्रता प्रियता प्यारी ।
प्रकृति मधुर मृदु मंजु सरलता देखि तिहारी ॥
रोम रोम कृतकृत्य भयो यह जन्म कृतारथ ।
तव दर्शन करि लोचन पायो लाहु यथारथ ॥
चित होय परम गद्गद मुदित जब विचारत कृत्ति तुव ।
जय जीवन जंग जहाज के जगमगात जातीय ध्रुव ॥