गगन उपाध्याय नैना की रचनाएँ : यहाँ माँ पर हिंदी कविता लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।
माँ वर्णन जो गाये
लिखते लिखते मेरी लेखनी
अकस्मात रूक जायें।
कोई शब्द नहीं मिल पाये
माँ वर्णन जो गाये।।
धीरे-धीरे जीवन बीता
बीते पहली यादें।
बचपन में लोरी जो गाती
गाकर मुझे सुलादे।।
मन-मन्दिर में तेरी सूरत
माँ मुझको बस भाये
कोई शब्द नहीं———————-
व्यर्थ बैठ कर सोचा करती
जीवन की गहराई।
कोमल पल्लव से कोमल तू
भूल गयी मै माई।।
प्रेम दया करूणा की बातें
तू ही हमें सुनायें
कोई शब्द नहीं———————-
तुझमें चारों धाम बसा है
सब देवों की पूजा।
तुझसे बढ़कर नहि कोई माँ
अखिल भुवन में दूजा।।
तू वरदात्री सकल विधात्री
तुझमें सभी समायें
कोई शब्द नहीं————————
गगन उपाध्याय”नैना”
मधुर लालसा सखे हृदय में
जीवन के इस मध्यभूमि में
प्रेम से सिचिंत कब होंगें।
*मधुर लालसा सखे हृदय में*
*प्रेम प्रवाहित कब होंगें।।*
कभी मिलन के सुखद योग में
कभी याद की नौका में।
कभी सतायें विरह वेदना
कभी बावड़ी चौका में।।
मधुरजनी में सुनों सखे रे!
प्रेम से सिचिंत तब होंगें
*मधुर लालसा सखे—————–*
प्रेम तपोवन की शाखा है
मीत तुझे है ज्ञात नहीं।
तरल हँसी अधरों पर गूँजे
नयन बाँकपन नाप रही।।
सुभगे की जब याद सतायें
प्रेम से सिचिंत तब होंगें
*मधुर लालसा————————-*
खुले नयन से स्वप्न दिखें जब
यौवन में अभिलाषा हो।
अनायास पलकें झुक जायें
तेज गती में श्वासा हो।।
कुछ कहना हो, कह नहि पाओं
प्रेम से सिचिंत तब होंगें
*मधुर लालसा————————-*
वाणी अधरों पर रुक जायें
परवशता में हृदय रहें।
कोई क्या उर में आ बैठा
सखे! यहीं तू बात कहें।।
तन-मन दोनों जब समान हों
प्रेम से सिचिंत तब होंगें
*मधुर लालसा————————–*
सुनों सखे रे! तुझे बताऊँ
रंच चकित मत हो जाना।
उर परिवर्तित दिखें तुझे जब
प्रेम गीत तुम तब गाना।।
जीवन मरण सभी हो निश्चित
प्रेम से सिचिंत तब होगें
*मधुर लालसा————————–*
*गगन उपाध्याय”नैना”*
मन्द-मन्द अधरों से अपने
कठिन विरह से सुखद मिलन का
पथ वो तय कर आयी।
मन्द-मन्द अधरों से अपने
सारी कथा सुनायी।।
पूष माष के कृष्णपक्ष की
छठवीं सुनों निशा थी।
शयनकक्ष में अनमन बैठी
ऐसी महादशा थी।।
सुनों अचानक मुझे बुलाये
मै तो सहम उठी थी।
और बताओं! कैसी हो तुम?
सुन मै चहक उठी थी।।
धीरे-धीरे साहस करके
मै बोली हुँ बढ़िया।
कई दिनों से बाट निहारूँ
क्षण-क्षण देखूँ घड़ियाँ।।
डरते-डरते सुनों सखी रे
मन की बात बतायी।।
मन्द-मन्द अधरों———————-
इसके आगे बात बढ़ी क्या
हम सब को बतलाओं।
आलिंगन, चुम्बन, परिरम्भण
कुछ तो हुआ बताओं।
प्रेम-पिपासा बुझी सखी क्या?
या अधरों तक सीमित।
एक-एक तुम बात बताओं
मन्द करों नहि सस्मित।।
मन में रखकर विकल करों मत
बात बताओं सारी।
तेरे सुख से हम सब खुश है
चिन्ता मिटी हमारी।।
लज्जा की ये सुघर चुनरियाँ
तुम पर बहुत सुहायी
मन्द-मन्द अधरों———————-
बात हमारी सुनकर प्रियवर
अकस्मात फिर बोले।
सुख-दुख, चिन्ता और चिता में
मन मेरा नहि डोले।।
कठिन समय से मै तो नैना
हरदम सुनों लड़ा हुँ।
तब जाकर मै छली जगत में
खुद को किया खड़ा हुँ।।
कामजित हुँ, इन्द्रजीत मै
अपनी यहीं कहानी।
सत्य बात बतलाता हुँ मै
सुनों विन्ध्य की रानी।।
बस मालिक पर मुझे भरोसा
क्या ये तुमको भायी
मन्द-मन्द अधरों———————-
इतनी बात सुनी मै सखि रे
नयन नीर भर आये।
टूटा मानों स्वप्न हमारा
क्या तुमको बतलायें।।
रोते-रोते साहस करके
विनत भाव से बोली।
थोड़ा सा विश्वास करों प्रिय
भर दो मेरी झोली।।
मेरे तो भगवान तुम्हीं हो
और कोई नहि दूजा।
मेरे आठों धाम तुम्हीं हो
करूँ तुम्हारी पूजा।।
कहते-कहते प्रिय समीप मै
जा कर पाश समायी
मन्द-मन्द अधरों———————
प्रिय बाहों के सुख का वर्णन
कैसे मै बतलाऊँ।
जीवन की सारी खुशियों को
इन पर सुनों लुटाऊँ।।
अपने पास बुला प्राणेश्वर
उर से हमें लगायें।
जीवन भर का साथ हमारा
ऐसी कसमें खायें।।
माथे पर चुम्बन की लड़ियाँ
दे आशीष सजाये
तुम मेरी हो, मै तेरा हुँ
हम आदर्श कहाये
सुन बाते! चरणों में गिरकर
जीवन सफल बनायी
मन्द-मन्द अधरों———————-
*गगन उपाध्याय”नैना”*