इन्तजार पर कविता

इन्तजार पर कविता

विसंगति छाई संसृति में
करदे समता का संचार।
मुझे ,उन सबका इन्तजार…।

जीवन की माँ ही है, रक्षक
फिर कैसे बन जाती भक्षक ?
फिर हत्या, हो कन्या भ्रूण की
या कन्या नवजात की ।
रक्षा करने अपनी संतान की
जो भरे माँ दुर्गा सा हुँकार
मुझे, उस माँ का इन्तजार….।

गली गली और मोड़ मोड़ पर
होता शोषण छोर छोर पर,
नहीं सुरक्षित नारी संज्ञिका
शिशु, बालिका या नवयौवना
इस दरिंदगी का  जो
कर दे पूर्ण संहार ।
मुझे, उस पुरुषार्थ का इन्तजार….।

हमारा अध्यात्म निवृत्ति परायण
करता आत्मदर्शन निरूपण,
संचय से कोसों है दूर
शांति संदेशों से भरपूर।
जड. से उखाड़ फेंके
छद्म वेशी,  बाबाओं का
बाजार।
मुझे, उस मानव का इन्तजार….।

गरीबी, बेबसी और लाचारी
भूखे सोने की मजबूरी,
पढ लिख कर भी बेकारी,
प्रतिभा फिरती मारी मारी।
इस विषमता की खाई को,
पाटने हित, हो जो बेकरार।
मुझे, उस समाज सेवी का इन्तजार…..।

देश एक पर विविध छटा है,
क्षेत्र धर्म जाति में बँटा है।
अर्थ हीन होते जा रहे, संवाद।
बिन बात बढते जा रहे
विवाद।
इस भेद भाव को मिटा
बसा दे, समता का संसार।
मुझे ,उस लोक सेवक का
इन्तजार…।
मुझे, उन सब का इन्तजार…।

पुष्पा शर्मा”कुसुम”

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *