चेहरे पर कविता

चेहरे पर कविता

सुनो
कुछ चेहरों
के भावों को पढ़ना
चाहती हूॅ
पर नाकाम रहती हूॅ शायद
खिलखिलाती धूप सी
हॅसी उनकी
झुर्रियों की सुन्दरता
बढ़ते हैं
पढ़ना चाहती हूॅ
उस सुन्दरता के पीछे
एक किताब
जिसमें कितने
गमों के अफसाने लिखे हैं
ना जाने कितने अरमान दबे हैं
ना जाने कितने फाँके लिखे हैं चेहरा जो अनुभव के तेज
से प्रकाशित सा दिखता है
उस तेज के पीछे छिपी
रोजी के पीछे के संघर्षो
को पढ़ना चाहती हूॅ
पर नाकाम रहती हूॅ
चंद सिक्को के बचाने
के लिए अंतस की
चाह दबाने वाले
चेहरे का तेज
बार बार कपड़ो पर
रफू करके भरते छेदों
के पीछे की कांति
जो दिखती नही
नकली बनावटी
चेहरे पर
पर हाॅ अहसास
होता है अब
जब उस संघर्ष से
गुजरती हूॅ आज
रफ्ता रफ्ता मैं
देखती हूॅ उन
झुर्रियों की लकीरे
हर लकीर एक कहानी
बयां करती है कि
हमारी खुशी के लिए
पालक हमारे कितनी
कुर्बानी देते
उफ तक ना करते
सब हॅसकर सहते
ताकि हमारे चेहरे
खिलते रहे हमेशा
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18/12/2018
स्नेहलता ‘स्नेह’सरगुजा छ0ग0

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