ये आम अनपढ़ बावला है
दुर्व्यवस्था देख,क्या लाचार सा रोना भला है।
क्या नहीं अब शेष हँसने की रही कोई कला है।
शोक है उस ज्ञान पर करता विमुख पुरुषार्थ से जो,
भाग्य की भी भ्राँतियों ने,कर्म का गौरव छला है।
आग तो कोई लगा दे,रोशनी के नाम से पर,
क्रांति का नवदीप केवल चेतना से ही जला है।
सभ्यता का अंकुरण,अस्तित्व है संघर्ष से ही,
बीज का संघर्ष ही तो वृक्ष में फूला -फला है।
तिमिर की अनुभूति बनती प्रेरणा नव चेतना से,
ज्योति के आह्वान का संकल्प दीपों में ढला है।
शांति के मिस धर्म का परित्याग केवल क्लीवता है,
मार्ग पर कर्तव्य के यह मोह भारी अर्गला है।
कंटकों से भी चुभन का पाँव में अनुराग लेकर,
फूल बोने के लिए माली सदा सदियों चला है।
लाख समझा लो फलो मत,मार पत्थर की पड़ेगी,
पर न मानेगा कभी,ये आम अनपढ़ बावला है।
वह तमस् को मस बनाकर ज्योति लिखना जानता है,
सर्जना के गर्भ में वरदान ऐसा ही पला है ।
रेखराम साहू (बिटकुला बिलासपुर छग )