सोशल मीडिया की गलियारों में उठ चला जब से शेयर का दौर शब्दो में एक सन्देश कर दी हमने पोस्ट बन रहे दोस्त कर रहे रिकवेस्ट हम भी देते उन्हें रिस्पेक्ट प्रोफाइल पर फोटो लगाकर देखे बारंबार दुसरो की अपडेट पोस्ट से रोज होती शुरुआत पर सोशल मीडिया में एक तरफ उड़ान तो दूसरी ओर है ऐसी दोस्ती भी कर दे हैरान ओर परेशान किस्मत है कि इस भुलभुलैया में न में फंस जाऊ हैक होने का डर सताए,में सिक्योरिटी लगाऊँ राहों में अपने पन में चोला ओढ़े ठग भी है तैयार सोशल मीडिया की इन गलियों न मिल सकता श्री कृष्ण और सुदामा जैसा बाल सखा व्यवहार स्टेटस का दौर चला में भी वहां करता अपडेट कोई रिस्पांस न मिले तो हो जाता अपसेट प्रोफाइल की डीपी जूम करके करता हु में याद जब से सोशल मीडिया का दौर आया हो जाते बस इसमे गुम
परिचय :- अक्षय भंडारी निवासी : राजगढ़ जिला धार शिक्षा : बीजेएमसी सम्प्रति : पत्रकार व सामाजिक कार्यकर्ता
मेरे लाल ,तू है आंखो का नूर, मुझे तुझ पर इतना है गरूर, बस याद रखना तू इतना जरूर, कभी न होना तू बे-नूर, राह में काँटे बिखरे हो दूर दूर तू मत होना थकान से चूर, पथरीली राहों पर चलकर पहुंचना सुदूर, ‘छोटी राहें’ ललचायेगी तुझे ये है दस्तूर,
पर न कभी भटकना,न कभी बहकना, मंजिल तेरे कदम चूमेगी झूम-झूम, मेरे लाल, मेरे आँखों के नूर मुझे तुझ पर इतना गुरूर।
जीवन में आयेंगे कई उतार चढ़ाव, तू मोड लेना पानी का बहाव, अपनी राहों में सजाना सरगम के सूर, कभी न होना तू मगरुर, राह मे आयेंगे कई मकाम, पर पहुँचना है तुझे मुकाम, मंजिल तेरे कदम चूमेगी झूम-झूम।
मेरे लाल, मेरे आँखो के नूर, मुझे तुझ पर है इतना गरूर।।
बच्चों तुम्हारा दिन आया, जो बाल दिवस कहलाया। खेल खिलौने गिफ्ट देकर, बाल हृदय को बहलाया।। निश्छल निर्मल दिल तुम्हारा, दुनियादारी नहीं समझता है। लोभ, मोह, मद, माया में, बाल मन नहीं उलझता है।। बाल उम्र के बाद बच्चों, झंझटों भरा जीवन होता। कोई तो संस्कार अपना, और कोई ईमान ही खोता।। वृद्धाश्रम आबाद हुए, उन बच्चों की नादानी से। बाल हृदय को मार दिया, कुछ अपनी मनमानी से।। बुढ़ापा बहुदा बचपन का, पुनर्रागमन होता है। बालहृदय की हत्या करता, वही पीछे पछताता है।।
नागार्जुन की १० लोकप्रिय रचनाएँ यहाँ पर आपके समक्ष पस्तुत हैं
चंदू, मैंने सपना देखा / नागार्जुन
चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू
मैंने सपना देखा देखा, कल परसों ही छूट रहे हो चंदू, मैंने सपना देखा, खूब पतंगें लूट रहे हो चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलंडर चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर मैं हूँ अंदर चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से पटना आए हो चंदू, मैंने सपना देखा, मेरे लिए शहद लाए हो
चंदू मैंने सपना देखा, फैल गया है सुयश तुम्हारा चंदू मैंने सपना देखा, तुम्हें जानता भारत सारा चंदू मैंने सपना देखा, तुम तो बहुत बड़े डाक्टर हो चंदू मैंने सपना देखा, अपनी ड्यूटी में तत्पर हो
चंदू, मैंने सपना देखा, इम्तिहान में बैठे हो तुम चंदू, मैंने सपना देखा, पुलिस-यान में बैठे हो तुम चंदू, मैंने सपना देखा, तुम हो बाहर, मैं हूँ अंदर चंदू, मैंने सपना देखा, लाए हो तुम नया कैलेंडर
बार-बार हारा है / नागार्जुन
गोआ तट का मैं मछुआरा सागर की सद्दाम तरंगे मुझ से कानाफूसी करतीं
नारिकेल के कुंज वनों का मैं भोला-भाला अधिवासी केरल का वह कृषक पुत्र हूँ ‘ओणम’ अपना निजी पर्व है नौका-चालन का प्रतियोगी मैं धरती का प्यारा शिशु हूँ श्रम ही जिसकी अपनी पूँजी छल से जिसको सहज घृणा है मैं तो वो कच्छी किसान हूँ लवण-उदधि का खारा पानी मुझसे बार-बार हारा है…
सौ-हजार नवजात केकड़े फैले हैं गुनगुन धूप में देखो तो इनकी ये फुर्ती वरुण देव को कितनी प्रिय है ! मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ ! मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ मेरी इस भावुकता मिश्रित बुद्धू पन पर तुम मुसकाओ पागल कह दो, कुछ भी कह दो पर मैं भी इन पर बलि-बलि जाऊँ !
संग तुम्हारे, साथ तुम्हारे / नागार्जुन
एक-एक को गोली मारो जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ, जी हाँ … हाँ-हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो बारूदी छर्रे से मेरी सद्गति हो … मैं भी यहाँ शहीद बनूँगा
अस्पताल की खटिया पर क्यों प्राण तजूँगा हाँ, हाँ, भाई, मुझको भी तुम गोली मारो पतित बुद्धिजीवी जमात में आग लगा दो यों तो इनकी लाशों को क्या गीध छुएँगे गलित कुष्ठवाली काया को
कुत्ते भी तो सूँघ-सूँघकर दूर हटेंगे अपनी मौत इन्हें मरने दो … तुम मत जाया करना अपना वो बारूदी छर्रा इनकी ख़ातिर वर्ग शत्रु तो ढेर पड़े हैं, इनकी ही लाशों से अब तुम
भूमि पाटते चलना हम तो, भैया, लगे किनारे … नहीं, नहीं, ये प्राण हमारे देंगे, देंगे, देंगे, देंगे, देंगे संग तुम्हारे, साथ तुम्हारे मैं न अभी मरने वाला हूँ … मर-मर कर जीने वाला हूँ …
अकाल और उसके बाद / नागार्जुन
कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।
दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद कौए ने खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।
शासन की बंदूक / नागार्जुन
खड़ी हो गई चाँपकर कंकालों की हूक नभ में विपुल विराट-सी शासन की बंदूक
उस हिटलरी गुमान पर सभी रहें है थूक जिसमें कानी हो गई शासन की बंदूक
बढ़ी बधिरता दस गुनी, बने विनोबा मूक धन्य-धन्य वह, धन्य वह, शासन की बंदूक
सत्य स्वयं घायल हुआ, गई अहिंसा चूक जहाँ-तहाँ दगने लगी शासन की बंदूक
जली ठूँठ पर बैठकर गई कोकिला कूक बाल न बाँका कर सकी शासन की बंदूक
उनको प्रणाम / नागार्जुन
जो नहीं हो सके पूर्ण–काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम ।
कुछ कंठित औ’ कुछ लक्ष्य–भ्रष्ट जिनके अभिमंत्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम !
जो छोटी–सी नैया लेकर उतरे करने को उदधि–पार; मन की मन में ही रही¸ स्वयं हो गए उसी में निराकार ! उनको प्रणाम !
जो उच्च शिखर की ओर बढ़े रह–रह नव–नव उत्साह भरे; पर कुछ ने ले ली हिम–समाधि कुछ असफल ही नीचे उतरे ! उनको प्रणाम !
एकाकी और अकिंचन हो जो भू–परिक्रमा को निकले; हो गए पंगु, प्रति–पद जिनके इतने अदृष्ट के दाव चले ! उनको प्रणाम !
कृत–कृत नहीं जो हो पाए; प्रत्युत फाँसी पर गए झूल कुछ ही दिन बीते हैं¸ फिर भी यह दुनिया जिनको गई भूल ! उनको प्रणाम !
थी उम्र साधना, पर जिनका जीवन नाटक दु:खांत हुआ; या जन्म–काल में सिंह लग्न पर कुसमय ही देहांत हुआ ! उनको प्रणाम !
दृढ़ व्रत औ’ दुर्दम साहस के जो उदाहरण थे मूर्ति–मंत ? पर निरवधि बंदी जीवन ने जिनकी धुन का कर दिया अंत ! उनको प्रणाम !
जिनकी सेवाएँ अतुलनीय पर विज्ञापन से रहे दूर प्रतिकूल परिस्थिति ने जिनके कर दिए मनोरथ चूर–चूर ! उनको प्रणाम !
निराला / नागार्जुन
बाल झबरे, दृष्टि पैनी, फटी लुंगी नग्न तन किन्तु अन्तर्दीप्त था आकाश-सा उन्मुक्त मन उसे मरने दिया हमने, रह गया घुटकर पवन अब भले ही याद में करते रहें सौ-सौ हवन ।
क्षीणबल गजराज अवहेलित रहा जग-भार बन छाँह तक से सहमते थे शृंगालों के प्राण-मन नहीं अंगीकार था तप-तेज को नकली नमन कर दिया है रोग ने क्या खूब भव-बाधा शमन !
राख को दूषित करेंगे ढोंगियों के अश्रुकण अस्थि-शेष-जुलूस का होगा उधर फिल्मीकरण शादा के वक्ष पर खुर-से पड़े लक्ष्मी-चरण शंखध्वनि में स्मारकों के द्रव्य का है अपहरण !
रहे तन्द्रा में निमीलित इन्द्र के सौ-सौ नयन करें शासन के महाप्रभु क्षीरसागर में शयन राजनीतिक अकड़ में जड़ ही रहा संसद-भवन नेहरू को क्या हुआ, मुख से न फूटा वचन ?
क्षेपकों की बाढ़ आई, रो रहे हैं रत्न कण देह बाकी नहीं है तो प्राण में होंगे न व्रण ? तिमिर में रवि खो गया, दिन लुप्त है, बेसुध गगन भारती सिर पीटती है, लुट गया है प्राणधन !
बादल को घिरते देखा है / नागार्जुन
अमल धवल गिरि के शिखरों पर, बादल को घिरते देखा है। छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को, मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है, बादल को घिरते देखा है।
तुंग हिमालय के कंधों पर छोटी-बड़ी कई झीलें हैं, उनके श्यामल नील सलिल में समतल देशों से आ-आकर पावस की ऊमस से आकुल तिक्त-मधुर विष-तंतु खोजते हंसों को तिरते देखा है। बादल को घिरते देखा है।
ऋतु वसंत का सुप्रभात था मंद-मंद था अनिल बह रहा बालारुण की मृदु किरणें थीं अगल-बगल स्वर्णाभ शिखर थे एक-दूसरे से विरहित हो अलग-बगल रहकर ही जिनको सारी रात बितानी होगी, निशाकाल से चिर-अभिशापित बेबस उस चकवा-चकई का बंद हुआ क्रन्दन, फिर उनमें उस महान सरवर के तीरे शैवालों की हरी दरी पर प्रणय-कलह छिड़ते देखा है। बादल को घिरते देखा है।
दुर्गम बर्फानी घाटी में शत-सहस्र फुट ऊँचाई पर अलख नाभि से उठने वाले निज के ही उन्मादक परिमल- के पीछे धावित हो-होकर तरल-तरुण कस्तूरी मृग को अपने पर चिढ़ते देखा है। बादल को घिरते देखा है।
कहाँ गया धनपति कुबेर वह? कहाँ गयी उसकी वह अलका? नहीं ठिकाना कालिदास के व्योम-प्रवाही गंगाजल का, ढूँढ़ा बहुत परन्तु लगा क्या मेघदूत का पता कहीं पर, कौन बताए वह छायामय बरस पड़ा होगा न यहीं पर, जाने दो, वह कवि-कल्पित था, मैंने तो भीषण जाड़ों में नभ-चुम्बी कैलाश शीर्ष पर, महामेघ को झंझानिल से गरज-गरज भिड़ते देखा है, बादल को घिरते देखा है।
शत-शत निर्झर-निर्झरणी-कल मुखरित देवदारु कानन में, शोणित-धवल-भोजपत्रों से छायी हुई कुटी के भीतर, रंग-बिरंगे और सुगंधित फूलों से कुन्तल को साजे, इंद्रनील की माला डाले शंख-सरीखे सुघड़ गलों में, कानों में कुवलय लटकाए, शतदल लाल कमल वेणी में, रजत-रचित मणि-खचित कलामय पान पात्र द्राक्षासव-पूरित रखे सामने अपने-अपने लोहित चंदन की त्रिपदी पर, नरम निदाग बाल-कस्तूरी मृगछालों पर पलथी मारे मदिरारुण आखों वाले उन उन्मद किन्नर-किन्नरियों की मृदुल मनोरम अँगुलियों को वंशी पर फिरते देखा है। बादल को घिरते देखा है।
रातोंरात भिगो गए बादल / नागार्जुन
मानसून उतरा है जहरी खाल की पहाड़ियों पर
बादल भिगो गए रातोंरात सलेटी छतों के कच्चे-पक्के घरों को प्रमुदित हैं गिरिजन
सोंधी भाप छोड़ रहे हैं सीढ़ियों की ज्यामितिक आकॄतियों में फैले हुए खेत दूर-दूर… दूर-दूर दीख रहे इधर-उधर डाँड़े के दोनों ओर दावानल-दग्ध वनांचल कहीं-कहीं डाल रहीं व्यवधान चीड़ों कि झुलसी पत्तियाँ मौसम का पहला वरदान इन तक भी पहुँचा है
जहरी खाल पर उतरा है मानसून भिगो गया है रातोंरात सबको इनको उनको हमको आपको मौसम का पहला वरदान पहुँचा है सभी तक…
प्रेत का बयान / नागार्जुन
“ओ रे प्रेत -“ कडककर बोले नरक के मालिक यमराज -“सच – सच बतला ! कैसे मरा तू ? भूख से , अकाल से ? बुखार कालाजार से ? पेचिस बदहजमी , प्लेग महामारी से ? कैसे मरा तू , सच -सच बतला !” खड़ खड़ खड़ खड़ हड़ हड़ हड़ हड़ काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा नचाकर लंबे चमचों – सा पंचगुरा हाथ रूखी – पतली किट – किट आवाज़ में प्रेत ने जवाब दिया –
” महाराज ! सच – सच कहूँगा झूठ नहीं बोलूँगा नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के पूर्णिया जिला है , सूबा बिहार के सिवान पर थाना धमदाहा ,बस्ती रुपउली जाति का कायस्थ उमर कुछ अधिक पचपन साल की पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था -“किन्तु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका ऐसी किसी व्याधि का पता नहीं हमको सावधान महाराज , नाम नहीं लीजिएगा हमारे समक्ष फिर कभी भूख का !!”
निकल गया भाप आवेग का तदनंतर शांत – स्तंभित स्वर में प्रेत बोला – “जहाँ तक मेरा अपना सम्बन्ध है सुनिए महाराज , तनिक भी पीर नहीं दुःख नहीं , दुविधा नहीं सरलतापूर्वक निकले थे प्राण सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला ..”
सुनकर दहाड़ स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षक प्रेत की रह गए निरूत्तर महामहिम नर्केश्वर |