Author: कविता बहार

  • पर्यावरण बचाव पर कविता

    पर्यावरण बचाव पर कविता

    पर्यावरण बचाव पर कविता

    save nature

    1-
    पर्यावरण बचाइए, कहता पूरा देश |
    एक लगाओ पेंड़ जो, बदलेगा परिवेश||
    2-
    हरे भरे रखना सदा ,हरियाली के केश|
    महके तन मन गंध से,पर्यावरण विशेष||
    3-
    पर्यावरण पुकारता, ले लो प्रेम अपार|
    मेरे अन्तस् पैठ के, लेना मुझे निहार||
    4-
    सबका खुशियों से सजे,सुन्दर जीवन धाम|
    पर्यावरण सुधारना, सबसे उत्तम काम||
    5-
    दोष युक्त पर्यावरण, किसे सुहाता मीत|
    दोषों के परिहार से, उपजे मन में प्रीत||
    6-
    पर्वत नदियाँ बाग वन, पर्यावरण समूल|
    उन्नति के हैं देवता, रखें सदा अनुकूल||
    7-
    तुलसी बरगद चाँदनी ,पीपल पाकड़ नीम|
    हर्र बहेड़ा आँवला,पर्यावरण हकीम||
    8-
    स्वच्छ रहे पर्यावरण, मिलकर करें प्रयास|
    सरकारी है योजना, शौचालय घर पास||
    9-
    घेर खड़ा पर्यावरण ,फैला चारों ओर |
    सर्दी बरसा धूप का, सुन्दर सा चितचोर||
    10-
    बिना लोभ बिन मोल के, रखे समर्पण भाव|
    पर्यावरण उदार है, जीवन जीव पड़ाव||
    11-
    कहत सरस पर्यावरण, जीवन का विस्तार|
    हरियाली से सुख मिले, हरियाली आधार||
    12..
    प्रणय साक्ष्य है जीव का, फूलों का वह हार|
    प्रेमबन्ध पर्यावरण, दुल्हन-सा श्रृंगार ||
    13-
    झूमे जीवन पेंड़ तो, मिले प्रेम अनुराग|
    हर लेता संताप है, पर्यावरण पराग||
    14-
    गंधवाहिनी शुद्ध हो,होवे पुष्ट शरीर|
    क्षिति जल पावक शून्य में, पर्यावरण समीर||
    15-
    हरियाली को देखके, खुशियाँ मिलें  अपार|
    सरस शुद्ध पर्यावरण ,जीवन का त्यौहार ||
    16-
    पर्यावरण अशुद्धता, जीवन का है ह्रास |
    सरस रहे वातावरण, कर लो मित्र प्रयास ||
    17-
    संरक्षित पर्यावरण, मन को देता मोद|
    एक पेंड़ को आप हम, आओ ले लें गोद||
    18-
    पर्यावरण सुधारिए, गाँव गली हों साफ|
    होने क्यों दें गन्दगी, खुशियाँ हुईं खिलाफ||
    19-
    बहुत काम के पेड़ हैं, इन्हें न काटें आप|
    पर्यावरण जो न बचा, भोगेंगे निज पाप||
    20-
    रक्षित हो पर्यावरण, जीवन मंगल मूल|
    स्वच्छ रहें हम आप सब, ईश्वर हो अनुकूल||
    21-
    मानव लालच ने किया, पर्यावरण विनाश|
    एक लोभ ने आपके, तोड़ दिया विश्वास ||
    22-
    पर्यावरण बिगाड़ते, मानव अपने हाथ|
    बचपन बूढ़ा हो गया, बच्चे हुए अनाथ||
    23-
    स्वच्छ हवा मिलती नहीं, पर्यावरण अशुद्ध|
    नये नये से रोग हैं, खुद करते युद्ध ||
    24-
    जीवन अति अनमोल है, पर्यावरण प्रचार |
    हँसी खुशी तन में बसे,मन में शुद्ध विचार||
    25-
    शुद्ध रखो पर्यावरण, रहें संतुलित आप|
    चिंतन में शामिल रहे, पर्यावरण प्रताप||
    
    ©दिलीप कुमार पाठक “सरस”
    बीसलपुर पीलीभीत उ प्र, भारत
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • पर्यावरण हमारा /आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    पर्यावरण हमारा /आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    पर्यावरण हमारा /आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    पर्यावरण हमारा /आचार्य मायाराम 'पतंग'

    हमको जीवन देता है यह पर्यावरण हमारा ।

    इसे नष्ट करने से होगा जीवन नष्ट हमारा ॥

    अज्ञानी हम ज्ञान राशि,

    औरों को बाँट रहे हैं।

    उसी डाल पर बैठ उसे ही,

    जड़ से काट रहे हैं।

    माँ प्रकृति ने हमको पाला,

    अपना दूध पिलाकर ।

    हम उसको ही पीड़ित करते,

    तिल-तिल जला जलाकर ।

    सोचो फिर कैसे हो पाएगा कल्याण हमारा ?

    हमको जीवन देता है यह पर्यावरण हमारा

    पेट फाड़कर पर्वत का हम,

    पत्थर बजरी लाते।

    काट-काटकर जंगल,

    नग को नंगा करते जाते ।

    नंगे हैं जो पर्वत बोलो

    किसकी शर्म करेंगे ?

    निश्चित भोगेंगे वैसे ही,

    जैस कर्म करेंगे।

    कुदरत को अपमानित करके, क्या सम्मान हमारा ?

    हमको जीवन देता है यह पर्यावरण हमारा ॥

    धरती माँ ने बहुत फूल फल,

    देकर हमको पाला ।

    रस बरसाते सूरज चंदा,

    देकर हमें उजाला ।

    पवन प्राण बन स्वयं हमारी

    साँसों में बसती है।

    वर्षा ही जीवन धारण कर,

    फसलों में हँसती है।

    मानवता को मिला निरंतर सुखकर सत्य सहारा।

    हमको जीवन देता है यह पर्यावरण हमारा ॥

    रखिए इसका ध्यान जीव को,

    चाहो अगर बचाना।

    जितने ज्यादा लगा सको

    धरती पर पेड़ लगाना ।

    सर सरिता का जल जीवन की

    प्रतिपल प्यास बुझाता ।

    प्रकृति प्राणियों का सचमुच है,

    माँ-बेटे का नाता ।

    समझो संतानों के नाते क्या कर्त्तव्य हमारा।

    हमको जीवन देता है यह पर्यावरण हमारा ॥

  • पेड़ की पुकार / सुनहरी लाल वर्मा ‘तुरंत’

    पेड़ की पुकार / सुनहरी लाल वर्मा ‘तुरंत’

    पेड़ की पुकार / सुनहरी लाल वर्मा ‘तुरंत’

    save tree save earth

    रो-रोकर एक पेड़

    लकड़हारे से एक दिन बोला

    क्यों काटता मुझको भैया

    तू है कितना भोला !

    सोच समझ फिर बता मुझे

    मैं तेरा क्या लेता हूँ?

    मैं तो पगले! तुझको, जग को

    बहुत कुछ देता ही देता हूँ।

    सूरज से प्रकाश लेकर

    मैं खाना स्वयं पकाता हूँ।

    धरती माँ से जल ले-लेकर

    अपनी प्यास बुझाता हूँ।

    पी जहरीली वायु, तुझे

    मैं शुद्ध पवन देता हूँ,

    शीतल छाया देकर तेरा

    दुःख भी सब हर लेता हूँ।

    स्वयं धूप में तपकर तेरा

    ताप मिटाता रहता हूँ,

    अंदर-अंदर रोता फिर भी

    बाहर गाता रहता हूँ।

    तेरे नन्हे-मुन्नों को निज

    छाया तले झुलाता हूँ

    मीठी-मीठी लोरी गाकर

    अपनी गोद सुलाता हूँ।

    अपने हर दुःख की औषधि

    काट गिराता है मुझको ही,

    तू मुझसे ही पाता है,

    तू मेरा ही दिया खाता है।

    वर्षा नहीं देख पाएगा

    ना तू अन्न उगा पाएगा

    धरती ऊसर बन जाएगी

    फिर बतला तू क्या खाएगा ?

    देख न पाएगा बसंत तू

    बाढ़ रोक ना पाएगा।

    मुझे काट देगा पगले !

    तू जीते जी मर जाएगा ।

  • दान पर दोहे / डॉ एनके सेठी

    दान पर दोहे / डॉ एनके सेठी

    दान पर दोहे

    देवें दान सुपात्र को,यही न्याय अरु धर्म।
    तज दें मन से मोह को,सत्य यही है कर्म।।1।।

    न्याय दानऔर धर्म का,अब हो रहाअभाव।
    आज जगत से मिट रहा,आपस का सद्भाव।।2।।

    सत् का जीवन में कभी, होता नहींअभाव।
    होता है जो भी असत,रहे न उसका भाव।।3।।

    करता जो भी दान है, वह पाता सम्मान।
    अनासक्ति के भाव का, मन से करता ध्यान।।4।।

    जीवन में हर दान ही, त्याग बिना है व्यर्थ।
    स्वार्थ भाव होता जहाॅं, वहाॅं न कोई अर्थ।।5।।

    पाता जो भी दान है, मन से होय प्रसन्न।
    दाता का बढ़ता रहे,खुशियाॅं अरु धन अन्न।।6।।

    बढ़े दान से धन सदा, खुशियाॅं मिले अपार।
    ईश्वर का आशीष भी, मिलता बारंबार।।7।।

    डॉ एनके सेठी

  • फ़ैसले से फ़ासला इंसाफ़ का होने लगा/ रेखराम साहू

    फ़ैसले से फ़ासला इंसाफ़ का होने लगा

    फ़ैसले से फ़ासला इंसाफ़ का होने लगा।
    यह तमाशा देखकर फ़रियाद है रोने लगा।।

    पाप दामन में बहुत हैं,पर उसे परवाह कब?
    गंग वह उल्टी बहाकर दाग़ है धोने लगा।।

    इस क़दर उसकी हवस है आसमां को छू रही।
    पाँव में पर लग गए जब वह ज़मीं खोने लगा।।

    वक़्त था जब आदमी का भार ढोते थे गधे।
    अब गधों भार ही है आदमी ढोने लगा।।

    बीज पुरखों से गए बोए अमन के बाग़ में।
    आज़ दंगा क्यों भला औलाद है बोने लगा।।

    जागना था रात में जिस रोज़ चौकीदार को।
    बेख़बर बेवक़्त वह उस रात ही सोने लगा।।

    हो गया जब पार दरिया तो मुसाफ़िर ने कहा।
    नाख़ुदा क़श्ती तुम्हारी दूर कर कोने लगा ।।

    रेखराम साहू