Author: कविता बहार

  • राखी त्यौहार पर कविता

    रक्षा बन्धन एक महत्वपूर्ण पर्व है। श्रावण पूर्णिमा के दिन बहनें अपने भाइयों को रक्षा सूत्र बांधती हैं। यह ‘रक्षासूत्र’ मात्र धागे का एक टुकड़ा नहीं होता है, बल्कि इसकी महिमा अपरम्पार होती है।

    कहा जाता है कि एक बार युधिष्ठिर ने सांसारिक संकटों से मुक्ति के लिये भगवान कृष्ण से उपाय पूछा तो कृष्ण ने उन्हें इंद्र और इंद्राणी की कथा सुनायी। कथा यह है कि लगातार राक्षसों से हारने के बाद इंद्र को अपना अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया। तब इंद्राणी ने श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन विधिपूर्वक तैयार रक्षाकवच को इंद्र के दाहिने हाथ में बांध दिया। इस रक्षाकवच में इतना अधिक प्रताप था कि इंद्र युद्ध में विजयी हुए। तब से इस पर्व को मनाने की प्रथा चल पड़ी।

    राखी त्यौहार पर कविता

    भाई-बहन

    राखी है प्यार- विश्वास का बंधन,
    इसमें है सम्मान – रक्षा का वंदन।
    भाई का प्यारी – नटखट बहना,
    बहन का भाई है अनमोल गहना।
    राखी से मिलें खुशियां भाई को अपार,
    भाई बहन का प्यार, राखी का त्यौहार।

    रूठे बहन को मना लो है यह शुभ दिन,
    भाई बहन नहीं रहते एक दूजे के बिन।
    भाई दे प्यारी बहन को मिठाईयां उपहार,
    भाई बहन का प्यार, राखी का त्यौहार।

    ये अमूल्य राखी है नहीं कोई रेशम का धागा,
    बहन ने भाई के सलामती का दुआ है मांगा।
    सिपाही को भेजे बहन डाक में राखी,
    देख बहन का प्यार हर्षित हुआ खाकी।
    अब ना होगा किसी बहन पर अत्याचार,
    भाई बहन का प्यार, राखी का त्यौहार।

    मां की प्रतिरूप होती है प्यारी बहन,
    भाई के लिए हर दुख सहती है बहन।
    प्रफुल्लित है चारो दिशा और संसार,
    भाई बहन का प्यार,राखी का त्यौहार।

    पल भर में रूठना और एक पल में मनाना,
    भाई बहन का रिश्ता से सम्मोहित है जमाना।
    ससुराल से आती बहन अपनी मायका,
    राखी में हैं प्यार – विश्वास का जायका।
    कहता है अकिल बहन से करो प्यार,
    भाई बहन का प्यार, राखी का त्यौहार।


    —– अकिल खान रायगढ़ जिला- रायगढ़ (छ.ग.) पिन – 496440.

  • खेल कराते मेल – खेल दिवस पर कविता

    भारत में राष्ट्रीय खेल दिवस प्रत्येक वर्ष 29 अगस्त को मनाया जाता है। 29 अगस्त को मनाने का कारण यह है कि इस दिन भारत के दिग्गज हॉकी प्लेयर मेजर ध्यान चन्द कुशवाहा का जन्म हुआ था। मेजर ध्यान चन्द को हॉकी का जादूगर कहा जाता है।

    खेल कराते मेल – खेल दिवस पर कविता

    kavitabahar logo
    kavitabahar logo

    व्यस्तता की गहरी खाई में,
    भौतिकता की अंगड़ाई में,
    जहाँ अपना कोई न समझे,
    हो रहा जहाँ पर ठेलमठेल,
    देखो तब खेल कराते मेल।

    मानव को मानव से जोड़े,
    हाथ मिला विष नाता तोड़े,
    दूरी दिल की या हो मीटर,
    राह के रोड़े देते हैं ठेल,
    देखो हैं खेल कराते मेल।

    भावना भरी है भाईचारे की,
    जय हो ऐसे खेल प्यारे की,
    कटुता द्वेष सब भूल जाते,
    जब हो मैदां में रेलमरेम,
    देखो ना खेल कराते मेल।

    जीवन की इस लघुता में,
    भौतिकता की पंगुता में,
    प्यार से सबको गले लगाएं
    आओ मिलकर खेले खेल,
    देखो हैं खेल कराते मेल।

    ★★☆★★★☆★★★★
    अशोक शर्मा,कुशीनगर,उ.प्र.
    ★★★★★★★★★★★

  • फील गुड हिंदी कविता

    फील गुड हिंदी कविता

    kavita

    भूख में मनुज देखो,
    पेट बाँध सोता है।
    जीने के लिये वह,
    बेटा बेटी खोता है।
    भारत महान है,
    अस्सी बेईमान है।
    कहुँ अब कैसे कि,
    फील गुड होता है।
    रोज रोज दंगे यहाँ,
    रेप मर्डर होता है।
    बंदुक चलाने वाले,
    बन गये नेता हैै।
    मंदिर दुकान है,
    भटके नौजवान है।
    कहुँ अब कैसे कि,
    फील गुड होता है।
    शेर सब शिकार होकर,
    पिंजरे में रोता है।
    वर्दी पहनकर,
    सियार बांस होता है।
    शोषित किसान है,
    कुंठित बुद्विमान है।
    कहुँं अब कैसे,
    फील गुड होता है।

    अनिल कुमार वर्मा, सेमरताल

  • अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ

    अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ

    टोक्यो ओलंपिक में भारत की मुक्केबाज लवलीना, मीराबाई चानु, बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, महिला हाकी टीम और तीरंदाज दीपिका कुमारी का शानदार प्रदर्शन ने साबित कर दिया कि बेटियों को अवसर मिले तो वे सफलता के परचम फहरा सकती हंै। एक समय था ,जब इसी देश में लड़कियों को घर की दहलीज लांघने की मनाही थी। उन्हें समाज में कहीं भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता था। बालिकाओं को घर के काम की जिम्मेंदारी थी। कम उम्र में काम का बोझ डाल दिया जाता था। सार्वजनिक क्षेत्रों से दूर रखी जाती थी। महिलाओं को सिर्फ चूल्हा चैका तक बाँध कर रखा जाता था। स्त्री के प्रति कुछ लोगों की सोच बहुत निम्न होती थी । वे स्त्री को अपने पैरों की जूती से अधिक कुछ नहीं मानते थे। हर युग में नारी को कठोर कष्ट के साथ जीना पड़ा है। कोमल अंग को कठिन जिम्मेदारी निभानी पड़ी है।
    नारी सत्ता को गंभीर परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है। देवतुल्य महापुरुषों ने स्त्री को जुए के दंाव तक में लगा दिया। मीरा के साथ अन्याय की इंतहा हो गई। यशोधरा को उसके पति ने रात को शयनकक्ष में ही छोड़ दिया। अहिल्या को पत्थर का श्राप मिला। सावित्री को यमराज से लड़ना पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि संसार में जितने भी लोग इतिहासपुरुष कहलाते है,उन सबके पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ रहा है। माताओं ने अपना सर्वस्व त्याग ,समर्पण से पुरुषों को दिशा दी है। महिलाएँ अपनी प्रतिभा,योग्यता को अपने प्रिय पुरुष पात्रों को देती रही है।
    नारियों को पुरुषों ने तरह तरह से ठगा है। अपने स्वार्थ सिद्धी के लिए कभी उसके सौन्दर्य के गुणगान गाए। तो कभी खुद कमजोर हुए तो नारी को काली, दुर्गा शक्तिस्वरुपा कहा। सच पूछों तो प्रकृति ने इन्हें सौन्दर्य से सजाया है। कोमलता, सरलता, मुस्कान, सुंदरता ही इनके असल श्रृंगार हैं। लेकिन कालांतर में चालाक नर ने महिलाओं को आभूषणों भंवरजाल में फाँस लिया । ये अलंकार बढ़ते बढ़ते इतना अधिक हो गए कि, आभूषणों के बोझ में चलना मुश्किल हो गया।जब चलना ही मुश्किल हो गया तो पुरुषों के साथ दौड़ना तो और भी कठिन हो गया । स्त्रीयों के पहनावे भी ऐसे रखे गए, जिसे पहनकर वे पुरुषों की भाँती काम नहीं कर सकती थी। साड़ी,धोती पहनकर दौड़ भाग का काम हो भी नहीं सकता। और ये आक्षेप भी सरलता से लगा दिए गए कि स्त्री पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकती।
    इतिहास सिद्ध है कि जब भी नारियों को मौका मिला है, उसने पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हौसला दिखाया है। कैकयी की कथा से आप अवगत होंगे। युद्ध क्षेत्र में राजा दशरथ के प्राण उसने बचाए थे। रानी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती और अहिल्या बाई की बहादुरी में क्या किसी को शंका ळें स्त्री कमजोर नहीं होती । कमजोर उसे समाज बनाता है। बचपन से कन्या को कमजोर साबित किया जाता है। लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ये नहीं करना चाहिए। वो नहीं करना चाहिए। इस तरह के बेकार की बंधनों से बालिकाओं में बचपन से ही असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। वह खुद को कमजोर समझने लगती है। उनका आत्मविश्वास पल्लवित ही नहीं हो पाते ।
    स्त्रीयों की उपेक्षा करने में स्वयं महिलाओं ने भी कम योगदान नहीं दिया है। नारियों को ताने नारियां ही देती है। महिलाओं की बुराई सबसे अधिक महिलाएं ही करती है। सास बहु का विरोध करती है। बहु सास से मुक्ति चाहती है। जबकि यह वास्तविकता है कि दोनों ही स्त्री हैं। वे ये भूल जाती है कि कभी सास भी बहु थी । यह भी कि बहु भी आगे सास होगी।
    पहले भी परिस्थितियों ने जब ललनाओं को मौका दिया तो उसने अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। मदालसा, मैत्रयी, गार्गी, लक्ष्मी बाई, दुर्गावती, जैसे नाम इतिहास और वर्तमान में अनेकानेक हैं। समय के साथ स्थितियां बदली और अब पुरानी मान्यताएं या कहँँू पुरुषों की साजिशे खंडित होती गई। आचार, विचार और व्यौहार में जोरदार परिवर्तन होने लगा। शासन समाज से उपर हो गया । शासन ने नर नारी को बराबरी का दर्जा दिया तो इसका असर दिखने लगा। अवसर व काम की समानता ने नारी को सशक्त रुप दे दिया। अब वह अमरबेल नहीं। वो खुद दूसरों का सहारा बनती गई। आज की स्थिति में देखें तो महिलाएँ हर तरह से सक्षम है। पढ़ाई, में समानता है। रोजगार में बराबरी है। व्यवसाय में स्वतंत्रता है। धर्म, राजनीति, खेलकूद, सैन्यविभाग, कला, न्याय, चिकित्सा, संचार, अंतरिक्ष, शिक्षा, साहित्य, यातायात आदि पुरुष के लिए आरक्षित माने जाने वाले क्षेत्रों में भी महिलाओं ने वो मुकाम हासिल किया है, जो साबित करता है कि आभूषण श्रृंगार नहीं बल्कि बेड़ियां थी।

    आज बाजारवाद में वहीं पुरुष साजिश की गंध आती है। जिसमें नारी को मात्र सौन्दर्य के साधन के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। सुंदरता की चिकनी बातें कहकर अंग प्रदर्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है। महिलाओं के सौन्दर्य को बाजारु बनाकर उसे सामान बेचने का तरीका निकाला जा रहा है। मजबूर, अतिमहात्वाकांछी, आत्माप्रशंसा की लालची महिलाएँ इस पुरुषप्रधान बाजार में स्वयं बिकने को तैयार हैं, जो स्त्री जाति के भविष्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है। सदपुरुषों को चाहिए कि वे इस प्रकार के कुचक्रों से स्त्रीयों को बचाए। साथ ही नारियों को किसी भी प्रकार के प्रलोभनों से बचना होगा। भौतिक सुखों के प्रति पागलपन छोड़ना होगा। वे अपना हक तो प्राप्त करें, लेकिन अपनी हद में भी रहे। तभी यह संसार सही दिशा में जा सकेगा। नारी चाहे वह किसी भी रुप में हो उसका सम्मान होना चाहिए। उसे कमजोर न मानते हुए अवसर की बारबरी दें। फिर देखिए जब मनुष्य के दोनों पहिए बराबर होगें तो संस्कार संस्कृति और संसार की कैसी प्रगति होगी।

    अनिल कुमार वर्मा
    सेमरताल, छत्तीसगढ़

  • उपन्यास गांधी चौक ‘ जैसा मेंने समझा

    kavita

    उपन्यास  गांधी चौक ‘ जैसा मेंने समझा

    हिन्दी के नवांकुर लेखक डा. आनंद कश्यप का प्रथम उपन्यास ” गांधी चौक ” केवल एक कहानी नहीं है. बल्कि छत्तीसगढ़ के संघर्षरत युवाओं की यथास्थिति का यथार्थ चित्रण है. चूंकि लेखक स्वयं एक प्रतियोगी हैं, तो उपन्यास में उन्होंने भावों के साथ अपनी आत्मा भी पिरो दी है.
    उपन्यास सपनो के बीज से शुरू होकर संबंधों के प्रोटोकॉल में समाप्त होता है. रचना का पात्र अश्वनी लोकसेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी करने वाले सभी ग्रामीण युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है. भीष्म जैसे अनेकानेक युवाओं ने अपना भविष्य संवारने के लिए अपने जीवन का बलिदान ही कर दिया.
    परीक्षा प्रणाली, अफसरशाही, भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, दादागिरी, गरीबी ये सब हम युवाओं के लिए कठिन चुनौतियां हैं. अश्वनी और उनके जैसे सभी प्रतियोगी संघर्ष के प्रतीक है.
    सूर्यकांत समर्पण का चेहरा है. ये वो सच्चा प्रेमी है, जो नीलिमा शारीरिक सौन्दर्य से नहीं बल्कि आंतरिक सौन्दर्य से मोहित है. वह उसके प्रति इतना समर्पित है कि उसके कहने पर अपना व्यवहार ही नहीं खुद को बदल लेता है. सूर्यकांत आजकल की तरह दिखावा करने वाला प्रेमी नहीं है. उसका प्यार गहरा है. सूर्यकांत ने नीलिमा की श्वास के साथ अपनी श्वास मिला लिया है. जीना मरना सब उसी के लिए. प्यार की ताकत है कि अमीर बाप का बिगड़ैल बेटा भी सुधर जाता है. अच्छी संगत और प्रेम मिलकर प्यार ही नहीं कठिन परीक्षा भी पास कर लेते हैं. इसमें आनंद जी ने बहुत अच्छी बात कही है कि प्रेम के ईजहार के लिए भी कानून बनने चाहिए. कम से कम एक मौका बिना भय के प्रेम अभिव्यक्ति के लिए होना ही चाहिए.
    इस उपन्यास में युवा कठिन तैयारी भी करते दिख रहे हैं और लोक सेवा आयोग, गरीबी, अफसरशाही, भ्रष्टाचार से संघर्ष भी कर रहे हैं.
    अश्वनी, राजा, रामप्रसाद, नीलिमा अंततः सफल होते हैं क्योंकि वे हार नहीं मानते. लगातार प्रयास करते हैं. वे एक दूसरे का सहयोग करते हैं. एक दूसरे की ताकत बनते हैं. वास्तव में भीष्म आत्महत्या नहीं करता है. समाज, शासन और परीक्षा प्रणाली एक साथ उसकी हत्या करते है. प्रज्ञा के घरवाले उसे ताने देते हैं. वहीं नीलिमा के मां बाप उस पर भरोसा करते हैं. ये हमारे समाज की वास्तविक स्थिति है. सफल आदमी सबका सम्मानीय हो जाता है. भागीरथी जैसे सीधे साधे लोग आज भी परेशान हैं. पता नहीं उन्हें अश्वनी जैसा अफसर सच में मिलेगा भी या नहीं. अश्वनी का यह कथन कि पिता को पुत्र अग्नि देगा तो उसे मुक्ति मिल जाएगी, तो पुत्री के अग्नि देने पर तो पिता ईश्वर ही हो जाएंगे. अत्यंत हृदयस्पर्शी है.
    गांधी चौक उपन्यास का शीर्षक एकदम सटीक है. पूरी कहानी और पात्र गांधी चौक के आसपास रहकर प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी कर रहे है. भारत देश में गांधी जी संघर्ष के आदर्श हैं. इस उपन्यास को आदर्शवादी उपन्यास की श्रेणी में रखूंगा, क्योंकि उपन्यास के समापन के आते आते भीष्म को छोड़कर सभी पात्र अपने अपने सपनो को साकार कर लेते हैं. सूर्यकांत को अफसरी के साथ ही अपनी जीवन संगिनी भी मिल जाती है.
    उपन्यास के अंत में सभी साथी एक साथ बिलासपुर गांधी चौक के पूनम होटल में हंसी मजाक करते हैं. वे सिगरेट व शराब का लुत्फ़ भी उठाते हैं. सफल आदमी अगर धुम्रपान करें, शराब पिए तो वह भी उसके पद और सफलता का श्रृंगार होता है.
    आनंद कश्यपजी की यह रचना नई पीढ़ी के प्रतियोगियों के लिए औषधि का काम करेगा. युवाओं को नयी दिशा और उर्जा मिलेगी. समाज को सीख मिलेगी और शासन को सुधार का संदेश मिलेगा. प्रेम और पढ़ाई दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं सहयोगी हैं. पद पाकर लोग घमंडी भी हो जाते है, पर वक्त उसे सही रास्ता में ले आता है. समय से बड़ा कोई गुरु नहीं है.
    उपन्यास के पात्र, उसकी भाषा, छत्तीसगढ़ियापन, जिमीकांदा की सब्जी, गांव, तालाब, खेत, बिलासपुर के चौक चौराहे और महाविद्यालय सब हमें बिलासपुर और छत्तीसगढ़ से जोड़ते हैं. कुल मिलाकर यह उपन्यास सार्थक और सफल है. आनंद कश्यपजी को बधाई. लिखते रहिये.
    अनिल कुमार वर्मा
    व्यख्याता हिन्दी
    शा.उ. मा. वि. सेमरताल