अवसर मिलें तो आदर्श बनती हैं नारियाँ
टोक्यो ओलंपिक में भारत की मुक्केबाज लवलीना, मीराबाई चानु, बैडमिंटन खिलाड़ी पीवी सिंधु, महिला हाकी टीम और तीरंदाज दीपिका कुमारी का शानदार प्रदर्शन ने साबित कर दिया कि बेटियों को अवसर मिले तो वे सफलता के परचम फहरा सकती हंै। एक समय था ,जब इसी देश में लड़कियों को घर की दहलीज लांघने की मनाही थी। उन्हें समाज में कहीं भी बराबरी का दर्जा नहीं दिया जाता था। बालिकाओं को घर के काम की जिम्मेंदारी थी। कम उम्र में काम का बोझ डाल दिया जाता था। सार्वजनिक क्षेत्रों से दूर रखी जाती थी। महिलाओं को सिर्फ चूल्हा चैका तक बाँध कर रखा जाता था। स्त्री के प्रति कुछ लोगों की सोच बहुत निम्न होती थी । वे स्त्री को अपने पैरों की जूती से अधिक कुछ नहीं मानते थे। हर युग में नारी को कठोर कष्ट के साथ जीना पड़ा है। कोमल अंग को कठिन जिम्मेदारी निभानी पड़ी है।
नारी सत्ता को गंभीर परीक्षाओं का सामना करना पड़ता है। देवतुल्य महापुरुषों ने स्त्री को जुए के दंाव तक में लगा दिया। मीरा के साथ अन्याय की इंतहा हो गई। यशोधरा को उसके पति ने रात को शयनकक्ष में ही छोड़ दिया। अहिल्या को पत्थर का श्राप मिला। सावित्री को यमराज से लड़ना पड़ा। ऐसा कहा जाता है कि संसार में जितने भी लोग इतिहासपुरुष कहलाते है,उन सबके पीछे किसी न किसी स्त्री का हाथ रहा है। माताओं ने अपना सर्वस्व त्याग ,समर्पण से पुरुषों को दिशा दी है। महिलाएँ अपनी प्रतिभा,योग्यता को अपने प्रिय पुरुष पात्रों को देती रही है।
नारियों को पुरुषों ने तरह तरह से ठगा है। अपने स्वार्थ सिद्धी के लिए कभी उसके सौन्दर्य के गुणगान गाए। तो कभी खुद कमजोर हुए तो नारी को काली, दुर्गा शक्तिस्वरुपा कहा। सच पूछों तो प्रकृति ने इन्हें सौन्दर्य से सजाया है। कोमलता, सरलता, मुस्कान, सुंदरता ही इनके असल श्रृंगार हैं। लेकिन कालांतर में चालाक नर ने महिलाओं को आभूषणों भंवरजाल में फाँस लिया । ये अलंकार बढ़ते बढ़ते इतना अधिक हो गए कि, आभूषणों के बोझ में चलना मुश्किल हो गया।जब चलना ही मुश्किल हो गया तो पुरुषों के साथ दौड़ना तो और भी कठिन हो गया । स्त्रीयों के पहनावे भी ऐसे रखे गए, जिसे पहनकर वे पुरुषों की भाँती काम नहीं कर सकती थी। साड़ी,धोती पहनकर दौड़ भाग का काम हो भी नहीं सकता। और ये आक्षेप भी सरलता से लगा दिए गए कि स्त्री पुरुषों की बराबरी नहीं कर सकती।
इतिहास सिद्ध है कि जब भी नारियों को मौका मिला है, उसने पुरुषों के मुकाबले ज्यादा हौसला दिखाया है। कैकयी की कथा से आप अवगत होंगे। युद्ध क्षेत्र में राजा दशरथ के प्राण उसने बचाए थे। रानी लक्ष्मी बाई, दुर्गावती और अहिल्या बाई की बहादुरी में क्या किसी को शंका ळें स्त्री कमजोर नहीं होती । कमजोर उसे समाज बनाता है। बचपन से कन्या को कमजोर साबित किया जाता है। लड़कियों को ऐसा नहीं करना चाहिए। ऐसा नहीं बोलना चाहिए। ये नहीं करना चाहिए। वो नहीं करना चाहिए। इस तरह के बेकार की बंधनों से बालिकाओं में बचपन से ही असुरक्षा का भाव पनपने लगता है। वह खुद को कमजोर समझने लगती है। उनका आत्मविश्वास पल्लवित ही नहीं हो पाते ।
स्त्रीयों की उपेक्षा करने में स्वयं महिलाओं ने भी कम योगदान नहीं दिया है। नारियों को ताने नारियां ही देती है। महिलाओं की बुराई सबसे अधिक महिलाएं ही करती है। सास बहु का विरोध करती है। बहु सास से मुक्ति चाहती है। जबकि यह वास्तविकता है कि दोनों ही स्त्री हैं। वे ये भूल जाती है कि कभी सास भी बहु थी । यह भी कि बहु भी आगे सास होगी।
पहले भी परिस्थितियों ने जब ललनाओं को मौका दिया तो उसने अपनी प्रतिभा का श्रेष्ठ प्रदर्शन किया है। मदालसा, मैत्रयी, गार्गी, लक्ष्मी बाई, दुर्गावती, जैसे नाम इतिहास और वर्तमान में अनेकानेक हैं। समय के साथ स्थितियां बदली और अब पुरानी मान्यताएं या कहँँू पुरुषों की साजिशे खंडित होती गई। आचार, विचार और व्यौहार में जोरदार परिवर्तन होने लगा। शासन समाज से उपर हो गया । शासन ने नर नारी को बराबरी का दर्जा दिया तो इसका असर दिखने लगा। अवसर व काम की समानता ने नारी को सशक्त रुप दे दिया। अब वह अमरबेल नहीं। वो खुद दूसरों का सहारा बनती गई। आज की स्थिति में देखें तो महिलाएँ हर तरह से सक्षम है। पढ़ाई, में समानता है। रोजगार में बराबरी है। व्यवसाय में स्वतंत्रता है। धर्म, राजनीति, खेलकूद, सैन्यविभाग, कला, न्याय, चिकित्सा, संचार, अंतरिक्ष, शिक्षा, साहित्य, यातायात आदि पुरुष के लिए आरक्षित माने जाने वाले क्षेत्रों में भी महिलाओं ने वो मुकाम हासिल किया है, जो साबित करता है कि आभूषण श्रृंगार नहीं बल्कि बेड़ियां थी।
आज बाजारवाद में वहीं पुरुष साजिश की गंध आती है। जिसमें नारी को मात्र सौन्दर्य के साधन के रुप में प्रस्तुत किया जाता है। सुंदरता की चिकनी बातें कहकर अंग प्रदर्शन को बढ़ावा दिया जा रहा है। महिलाओं के सौन्दर्य को बाजारु बनाकर उसे सामान बेचने का तरीका निकाला जा रहा है। मजबूर, अतिमहात्वाकांछी, आत्माप्रशंसा की लालची महिलाएँ इस पुरुषप्रधान बाजार में स्वयं बिकने को तैयार हैं, जो स्त्री जाति के भविष्य के लिए खतरनाक होता जा रहा है। सदपुरुषों को चाहिए कि वे इस प्रकार के कुचक्रों से स्त्रीयों को बचाए। साथ ही नारियों को किसी भी प्रकार के प्रलोभनों से बचना होगा। भौतिक सुखों के प्रति पागलपन छोड़ना होगा। वे अपना हक तो प्राप्त करें, लेकिन अपनी हद में भी रहे। तभी यह संसार सही दिशा में जा सकेगा। नारी चाहे वह किसी भी रुप में हो उसका सम्मान होना चाहिए। उसे कमजोर न मानते हुए अवसर की बारबरी दें। फिर देखिए जब मनुष्य के दोनों पहिए बराबर होगें तो संस्कार संस्कृति और संसार की कैसी प्रगति होगी।
अनिल कुमार वर्मा
सेमरताल, छत्तीसगढ़