धरा की आह पर कविता
न कभी सुनने की थी चाह,
फिर भी मैंने सुनी है आह।
कभी कर्कश आवाजें करती थी टहनियाँ,
कह रही है अनकही कहानियाँ,
कभी हवाओं के झोंके से मचलती थी मेरी सहेलियाँ,
अब खड़ी है फैलाकर झोलियाँ,
अब न कटे हमारे साथी और न सखियाँ।
न कभी सुनने की थी चाह,
फिर भी मैंने सुनी है आह।
ऊंचे-ऊंचे पर्वतों की सूनी चोटियाँ,
सूखे दरख्त सूखी लताएँ व सूखी झाडियाँ,
तेज़ी से पिघलती बर्फ की सिल्लियाँ।
न कभी सुनने की चाह,
फिर भी मैंने सुनी है आह।
मैं हूँ धरा, सुनो तो मेरी जरा,
कितनी अट्टालिकाओं की बलि चढ़ती मैं,
सीमेंट व कॉन्क्रीट के बोझ सहती मैं।
हे मानव! मेरी चीख पुकार को ठुकरा न तू,
वरना कराह भी न पाएगा तू।
अब न कर हमारे अंग भंग,
वरना मिट जाएगा तू भी हमारे संग संग।
आह को महसूस कर!
आह को महसूस कर!
अपने इन डगमगाते कदमों को थाम ले,
अपना भविष्य संवार ले,
सबका भविष्य संवार ले।
माला पहल, मुंबई
Beautiful choice of words.. heart touching poem.. kudos to the poet