हे ईश्वर तेरे बच्चों पर, कैसा संकट छाया है? हर ओर बेबसी बदहाली का कैसा काला साया है? है त्राहि त्राहि ये धरा कर रही क्यों ऐ मालिक? क्यों आसमान ने सूक्ष्म गरल ये बरसाया है?
जनमानस के मस्तिष्क पटल पर खौफ बड़ा है। हर गली सड़क पर यम का सेवक सजग खड़ा है। छोटी सी चूक अचूक व्याधि जो ले आती है, लेती मनुष्य का इम्तेहान वह बहुत कड़ा है।
पहचाने से चेहरे जो हर दिन मिल जाते थे। वो घर की चारदीवारी में पाए जाते हैं। जब कोई घर की चौखट पर दस्तक देता है, दरवाज़ों के पीछे तब सारे हिल जाते हैं।
अपनों का ध्यान जिसे रखना है इस बेला में, अपनों से दूर उसे खुद को करना पड़ता है। जब साथ चाहिए कठिन घड़ी में प्रिय:जनों का, तब वो संघर्ष अकेले ही करना पड़ता है।
जो स्वास्थ्यलाभ घर में ले ले वो भाग्यवान है। बाहर का मंज़र मायूसी का इक मचान है। जिसपर जर्ज़र सी सीढ़ी ज्यों त्यों टिकी हुई है, चढ़ने वाले को रहना हर पल सावधान है।
ना बिस्तर है ना प्राणवायु ना वेंटीलेटर, हर ओर बदहवासी और हाहाकार मचा है। पैसों से प्राण बचाना लगभग नामुमकिन है, मानव में मानवता का गुण भी कहाँ बचा है?
धिक्कार उन्हें जो ढूंढ रहे विपदा में अवसर। पैसों में जो इंसान की जाँ को तौल रहे हैं। क्या वो मनुष्य कहलाने के लायक भी हैं जो, गिद्धों से भी बदतर ढंग से यूं नोच रहे हैं।
ना सरकारें हैं ना जन प्रतिनिधि ना मंत्री जी हैं, इक सिस्टम है जो खड़ा हुआ लाचार लचर है। सुनते थे भारत विश्व का मार्ग प्रशस्त करेगा, उस भारत की सम्पूर्ण विश्व में झुकी नज़र है।
कुछ करना है हमको तो आओ इतना कर लें, घर में रह लें कुछ दिन नियमों का पालन कर लें। जितना हो पाए इक दूजे की मदद करें सब, दिल में जितनी भी दूरी हो आओ सब भर लें।
सब साथ लड़ें तो जीत हमारी निश्चित होगी, दृढ संकल्पों के आगे ये भी नहीं टिकेगा। जब अच्छा वक़्त नहीं रह सकता सदा की खातिर, यह बुरा वक़्त भी बहुत जल्द धरती से हटेगा।
कुछ ले दे के साब ( व्यंग्य ) – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”
“कुछ ले दे के साब “ हमारे देश की यह एक असांस्कृतिक परम्परा अब एक सांस्कृतिक परम्परा के रूप में अपनी जड़ें जमा चुकी है | “कुछ ले दे के साब “ एक नारा नहीं है | यह मुसीबत से बचने का एक नायाब तरीका है जो सदियों से भारत देश की पावन भूमि पर पनपता और पलता रहा है | इस विचार को अब संस्कृति के विस्तार के एक अंग के रूप में देखा जाता है | “कुछ ले दे के साब “ जीवन के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में एक मन से और पूर्ण एकता के साथ अपना लिया गया है |
यह अब हमारे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एकमत से अंगीकार कर लिया गया है | एक बात और बता दूं आपको , इसके शिकार होने वालों में गरीब जनता और माध्यम वर्ग के लोग विशेष रूप से शामिल हैं | चूंकि उच्च स्तर के वर्ग के लोगों को राजनीतिक संरक्षण की वजह से बचने का अवसर प्राप्त हो ही जाता है | इसका अर्थ यह नहीं कि उनके राजनीतिक रिश्ते प्रगाढ़ हैं अपितु वे अपने द्वारा पार्टी को दिए गए चंदे को समय – असमय भुनाते रहते हैं |
ये रिश्ते अप्रत्यक्ष रूप से पनपते हैं जो काफी बड़ी – बड़ी डीलों से गुजरकर पूरा होता है | कहीं पेट्रोल पंप खोलना हो, कोई नया उद्योग लगाना हो , कही न मल्टी स्टार होटल बनाना हो , गाड़ी का लाइसेंस बनवाना हो, सरकारी जमीन हथियाना हो, सड़क निर्माण का ठेका लेना हो, एअरपोर्ट ठेके पर लेना हो या फिर इसी तरह का कोई और बड़ा काम करवाना हो तो उसके लिए आपको तो पता ही है “ कुछ ले दे के साब “ कहना है और हो गया आपका काम |
जीवन के हर कदम पर , हर स्तर पर हम देखते हैं कि “ कुछ ले दे के साब “ यह जुमला या कहें तो डायलाग याद करके ही घर से निकलना होता है | जिन्हें यह डायलाग याद नहीं होता वो बेचारे एक दो बार तो चालान के रास्ते से गुजर लेंगे किन्तु तीसरी बार उन्हें भी यह “ कुछ ले दे के साब “डायलाग याद हो ही जाता है | आपको एक मित्र के जीवन का एक संस्मरण सुना रहा हूँ | हरियाणा से हमारा मित्र कार पर सपरिवार सवार होकर हिमाचल के लिए प्रस्थान करता है |
रात के दो बजे हैं सुनसान सड़क पर दूर – दूर तक कोई नहीं | इसी बात का फायदा उठाने की कोशिश में वे एक पीली बत्ती वाले चौक को पार कर आगे बढ़ते हैं | थोड़ी ही दूर पर पेड़ों की झुरमुट से दो वर्दीधारी अचानक से प्रकट होते हैं और पीली बत्ती क्रॉस करने को लेकर चालान काटने का नाटक करते हैं | हमारा मित्र भी कुछ कम समझदार नहीं है | वह स्थिति को भांप लेता है और ज्यादा समय न बर्बाद करते हुए वह सीधी भाषा में कह देता है “ कुछ ले दे के साब “ | बात पांच सौ में पक्की होती है दोस्त जेब में रखे 100 – 100 के चार नोट की पुंगड़ी बनाकर वर्दीधारी को पकड़ा गिनने का मौका भी नहीं देता है और 100 की गति से वहां से निकल लेता है | इसे कहते है समझदारी |
मुझे अपना भी एक संस्मरण याद आ रहा है | बात यह है कि मैं अपनी धर्मपत्नी से साथ डॉक्टर से मिलकर लौट रहा था रास्ते में मुझे सड़क क्रॉस कर आर टी ओ ऑफिस जाना था | किसी के कहने पर मैंने बीच से एक रास्ते से होकर आर टी ओ ऑफिस तक पहुँचने की सोची | किन्तु कैसे ही मैंने बीच का रास्ता क्रॉस किया एक वर्दीधारी मेरी मोटर साइकिल के सामने प्रकट हो गया और कहने लगा कि जनाब आप गलत रास्ते पर आ गए हैं चालान कटेगा | सो मामला “ कुछ ले दे के साब “ पर आकर टिक गया | बात तीन सौ रुपये पर आकर सिमट गयी और हम अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले |
इसी तरह आप सभी के जीवन के कुछ न कुछ संस्मरण अवश्य ही होंगे जहां “ कुछ ले दे के साब “ वाली स्थिति पैदा हुई होगी और मामला “ कुछ ले दे के साब “ पर आकर ही सलटा होगा | जब से नया यातायात कानून लागू हुआ है तब से वर्दीधारियों की चाँदी न कहते हुए कहना चाहूंगा कि उनकी तो डायमंड हो गयी है अब 500 से नीचे बात बनती ही नहीं | हमारे पहचान की एक महिला बता रही थीं कि उनके साथ भी ऐसी ही “ कुछ ले दे के साब “ वाली घटना हुई | मामला तो निपट गया पर उन्होंने उस वर्दीधारी से पूछा भैया आप महीने में कितना निकाल लेते हो | बीस हजार तो हो ही जाता होगा | वर्दीधारी का जवाब उसे भीतर तक हिला गया जब उसने कहा कि आप किस दुनिया में हैं यहाँ तो महीने का टारगेट दो लाख से कम नहीं होता |
अभी पीछे एक घटना ने सबको हिला दिया था जब एक व्यक्ति के संस्कार के समय अचानक पूरी की पूरी छत लोगों के सिर पर गिर गयी और करीब 25 लोगों का वहीँ संस्कार कर दिया गया | जांच हुई तो पता चला कि “ कुछ ले दे के साब “ के माध्यम से ही छत का निर्माण हुआ था | यह भी सत्य सामने आया कि अधिकारी को 28 प्रतिशत दिया गया था | अब आप ही सोचिये इस देश का क्या होगा जब ……………|
“ कुछ ले दे के साब “ यह विषय केवल एक या दो विभागों की धरोहर होकर नहीं रह गया है यह स्लोगन चरितार्थ रूप में आर टी ओ , तहसील, जिला मुख्यालय, मकानों की रजिस्ट्री , प्रॉपर्टी खरीद, शिक्षा, फिल्म जगत या यूं कहें तो मुझे नहीं लगता ऐसा जीवन का कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जहां “ कुछ ले दे के साब “ ने घुसपैठ न की हो | हमारे देश में अभी कुछ अतिविचित्र मामले देखने में आये जब एक शिक्षिक ने तीन स्कूल से तनख्वाह निकाली और फुलटूस मस्ती की | फर्जी अंकसूची के जरिये एक व्यक्ति ने 16 साल नौकरी कर ली और लाखों कमा लिए | अब सरकार कैसे उससे लाखों की राशि वसूलेगी यह तो सरकार ही ……….|
किसी भी स्तर पर सरकारी कर्मचारी का ट्रान्सफर एक मुख्य साधन है आय को बढ़ाने का | कर्मचारियों को उनके गृहनगर से दूर कही पोस्टिंग कर दो बाद में वही व्यक्ति अपने गृहनगर के आसपास आने के लिए “ कुछ ले दे के साब “ वाली भाषा में अपना काम निपटाने की कोशिश करेगा | एक सत्य घटना आपसे साझा कर रहा हूँ किसी एक कर्मचारी ने अपने गृहनगर के लिए सरकारी पोर्टल पर एक विशिष्ट व्यक्ति के मान से ग्रिएवांस डाली किन्तु जवाब में उसे उस स्टेशन पर तीन साल के लिए रहने को कहा गया जबकि उसी के साथ का एक कर्मचारी जो तीन महीने पहले ही उस संस्था में ट्रान्सफर पर आया था चौथे महीने ही वह अपने गृहनगर वापस पहुँच जाता है इस घटना को आप कैसे देखते हैं इसे आप खुद ही देख लीजिये |
सरकारी विभागों के बाबू इस “ कुछ ले दे के साब “ वाली परम्परा का भरपूर लाभ उठाते हैं | चाय – चढ़ावा के बिना बिल पास होते ही नहीं | हमारे देश में किसी को ड्राइविंग न भी आती हो पर उसके नाम से बिना टेस्ट पास किये भी लाइसेंस बन जाता है | आपकी अपनी फोटो पर दूसरे के नाम से आधार कार्ड भी बन जाता है | आप चाहें तो दूसरे के नाम से लोन भी ले सकते हैं और न चुकाने की स्थिति में विदेश में उस देश में जाकर रह सकते हैं जिनके साथ हमारी प्रत्यर्पण संधि नहीं है | इसके अलावा आप एक प्रयास और भी कर सकते हैं कि आप अपने दिवालियापन का दुखड़ा राजनीतिक अखाड़े में सुनाते रहिये हो सकता है कि आपको भी कोई बड़ा सा पैकेज मिल जाए उसमे से जितना बड़े साहब कहें उतना पीछे के रास्ते से भिजवा दीजिये |
“ कुछ ले दे के साब “ आज हमारी संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन गया है | नेताओं की गाड़ी भी “ कुछ ले दे के साब “ की पटरी पर से ही होकर गुजरती है | एक मुख्य बात जो मैं आपको बताना भूल गया कि हर बार ऐसा नहीं होता | कभी – कभी ईमानदार अधिकारी या वर्दीधारी पल्ले पड़ता है तब स्थिति भयावह हो जाती है | तब आपका “ कुछ ले दे के साब “ वाला नारा भी काम नहीं आता | इस स्थिति में अच्छा हो कि आप चालान कटवा लें और वहां से खिसक लें | क्योंकि ऐसे अधिकारी या वर्दीधारी से बहस करना मतलब अपने चालान की राशि को कई गुना कर लेना होता है |
आज स्थिति यह है कि एक चाय वाला भी वर्दीधारी को बिना पैसे की चाय नहीं पिलाता तो उसका चाय का टपरा अगले ही दिन उस जगह से नदारत हो जाता है | इसीलिए आप “ कुछ ले दे के साब “ वाले इस स्लोगन को अपने चिंतन द्वार पर स्थापित किये रहिये और एक खुशहाल जीवन जीने की ओर अग्रसर होते रहिये | मेरी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं …………………|
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 1994 को अंतर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष घोषित किया था। समूचे संसार में लोगों के बीच परिवार की अहमियत बताने के लिए हर साल 15 मई को अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस मनाया जाने लगा है। 1995 से यह सिलसिला जारी है। परिवार की महत्ता समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
परिवार की खातिर ( कविता )
मजबूरी है साहब वरना वो भीख नहीं मांगता, यूँ बेसुध हो गलियों की खाक नहीं छानता। मजबूरी है तभी वो हाथ फैलता है, तपती ज़मीन पर नंगे पैर चला आता है। अपनी हालत पर रोता भी होगा, क्या पता रात को वो सोता भी होगा। उसका घर परिवार भी होगा, छोटा सा एक संसार भी होगा।
कलियाँ भी चटकी होंगी कभी उसके आँगन में, खुशियों की बरसात भी हुई होंगी सावन में। क्या पता कैसे वो दीन बन गया, क्यों सबकी निगाहो में हीन बन गया। कहते है जैसा कर्म किया वैसा ही मिलता है, जैसा बीज होगा वैसा ही फूल खिलता है। वो कर्मो का नहीं शायद ग़रीबी का मारा है, हाँ गरीब ही है इसलिए बेसहारा है।
इनकी भी तो कोई आस होती है, जीवन की अधूरी कोई प्यास होती है। बिखर कर रह जाते है सारे सपने, आंखे बिना नींद के सोती है। ईश्वर की भी अजीब माया है, जाने कौन सा ये खेल रचाया है। किसी को थमा दी लाखो की दौलत, और किसी को दर का भिखारी बनाया है।
यह गर्म लू चलती, भयानक तपिश घर बाहर। कुछ मित्र भी कहते,अचानक नगर की आकर। आकाश रोता रवि, धरा शशि विकल हर माता। यह रोग कोरोना, पराजित मनुज थक गाता।
पितु मात छीने है, किसी घर तनय बहु बेटी। यह मौत का साया, निँगलता मनुज आखेटी। मजदूर भूखे घर, निठल्ले स्वजन जन सारे। बीमार जन शासन, चिकित्सक पड़े मन हारे।
तन साँस सी घुटती, सुने जब खबर मौतों की। मन फाँस बन चुभती, पराए सुजन गोतों की। नाते हुए थोथे, विगत सब रहन ब्याजों के। ताले जड़े मुख पर, लगे घर विहग बाजों के। . बाबू लाल शर्मा,बौहरा,विज्ञ सिकन्दरा, दौसा, राजस्थान