Author: कविता बहार

  • शिव स्तुति

    प्रस्तुत कविता शिव स्तुति भगवान शिव पर आधारित है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव महादेव, भोलेनाथ, शंकर, महेश, रुद्र, नीलकंठ, गंगाधार आदि नामों से भी जाना जाता है।

    इन्द्रवज्रा/उपेंद्र वज्रा/उपजाति छंद

    शिव स्तुति

    परहित कर विषपान, महादेव जग के बने।
    सुर नर मुनि गा गान, चरण वंदना नित करें।।

    माथ नवा जयकार, मधुर स्तोत्र गा जो करें।
    भरें सदा भंडार, औघड़ दानी कर कृपा।।

    कैलाश वासी त्रिपुरादि नाशी।
    संसार शासी तव धाम काशी।
    नन्दी सवारी विष कंठ धारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।१।।

    ज्यों पूर्णमासी तव सौम्य हाँसी।
    जो हैं विलासी उन से उदासी।
    भार्या तुम्हारी गिरिजा दुलारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।२।।

    जो भक्त सेवे फल पुष्प देवे।
    वाँ की तु देवे भव-नाव खेवे।
    दिव्यावतारी भव बाध टारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।३।।

    धूनी जगावे जल को चढ़ावे।
    जो भक्त ध्यावे उन को तु भावे।
    आँखें अँगारी गल सर्प धारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।४।।

    माथा नवाते तुझको रिझाते।
    जो धाम आते उन को सुहाते।
    जो हैं दुखारी उनके सुखारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।५।।

    मैं हूँ विकारी तु विराग धारी।
    मैं व्याभिचारी प्रभु काम मारी।
    मैं जन्मधारी तु स्वयं प्रसारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।६।।

    द्वारे तिहारे दुखिया पुकारे।
    सन्ताप सारे हर लो हमारे।
    झोली उन्हारी भरते उदारी।
    कल्याणकारी शिव दुःख हारी।।७।।

    सृष्टी नियंता सुत एकदंता।
    शोभा बखंता ऋषि साधु संता।
    तु अर्ध नारी डमरू मदारी।
    पिनाक धारी शिव दुःख हारी।८।।

    जा की उजारी जग ने दुआरी।
    वा की निखारी प्रभुने अटारी।
    कृपा तिहारी उन पे तु डारी।
    पिनाक धारी शिव दुःख हारी।९।।

    पुकार मोरी सुन ओ अघोरी।
    हे भंगखोरी भर दो तिजोरी।
    माँगे भिखारी रख आस भारी।
    पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१०।।

    भभूत अंगा तव भाल गंगा।
    गणादि संगा रहते मलंगा।
    श्मशान चारी सुर-काज सारी।
    पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।११।।

    नवाय माथा रचुँ दिव्य गाथा।
    महेश नाथा रख शीश हाथा।
    त्रिनेत्र थारी महिमा अपारी।
    पिनाक धारी शिव दुःख हारी।।१२।।

    करके तांडव नृत्य, प्रलय जग में शिव करते।
    विपदाएँ भव-ताप, भक्त जन का भी हरते।
    देवों के भी देव, सदा रीझो थोड़े में।
    करो हृदय नित वास, शैलजा सँग जोड़े में।
    रच “शिवेंद्रवज्रा” रखे, शिव चरणों में ‘बासु’ कवि।
    जो गावें उनकी रहे, नित महेश-चित में छवि।।

    (छंद १ से ७ इंद्र वज्रा में, ८ से १० उपजाति में और ११ व १२ उपेंद्र वज्रा में।)
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    लक्षण छंद “इन्द्रवज्रा”

    “ताता जगेगा” यदि सूत्र राचो।
    तो ‘इन्द्रवज्रा’ शुभ छंद पाओ।

    “ताता जगेगा” = तगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु
    221 221 121 22
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    लक्षण छंद “उपेंद्रवज्रा”

    “जता जगेगा” यदि सूत्र राचो।
    ‘उपेन्द्रवज्रा’ तब छंद पाओ।

    “जता जगेगा” = जगण, तगण, जगण, गुरु, गुरु
    121 221 121 22
    **************
    लक्षण छंद “उपजाति छंद”

    उपेंद्रवज्रा अरु इंद्रवज्रा।
    दोनों मिले तो ‘उपजाति’ छंदा।

    चार चरणों के छंद में कोई चरण इन्द्रवज्रा का हो और कोई उपेंद्र वज्रा का तो वह ‘उपजाति’ छंद के अंतर्गत आता है।
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    बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
    तिनसुकिया

  • गणेश वंदना- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    गणेश वंदना- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    जय गणेश गजबदन विनायक
    एकदन्त गणपति गणनायक

    प्रथम पूज्य तुम देव हमारे
    विध्न हरो प्रभु करो काज हमारे

    मूषक वाहन तुम्हें लगते प्यारे
    लम्बोदर गौरी- शिव के प्यारे

    सबसे लाड़ले तुम मात- पिता के
    मंगल करता गौरीसुत तुम

    प्रथम पूज्य तुम लगते प्यारे
    मोदक तुमको सबसे प्यारे

    कष्ट हरो सब शिव के दुलारे
    जब भी घन- घन घंटा बाजे

    मूषक पर तुम दौड़ के आते
    जय लम्बोदर जय एकदन्त

    जय गणपति जय गौरीसुत
    जय गजानन जय विघ्नेश

    खत्म हैं करते सारे क्लेश
    जय गजबदन जय विनायक

    जय विघ्न्हर्ता जय मंगलकर्ता
    जय गणेश जय – जय गणेश |

  • तुम न छेड़ो कोई बात – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    कविता संग्रह
    कविता संग्रह

    तुम न छेड़ो कोई बात – कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    तुम न छेड़ो कोई बात
    न सुनाओ आदशों का राग

    मार्ग अब हुए अनैतिक
    हर सांस अब है कांपती

    कि मैं डरूं कि वो डरे
    हर मोड़ अब डरा – डरा रहा

    कांपते बदन सभी
    कांपती है आत्मा

    रिश्ते हुए सभी विफल
    आँखों की शर्म खो रही

    बालपन न बालपन रहा
    जवानी बुढ़ापे में झांकती

    ये आदर्श अब न आदर्श रहे
    न मानवता मानवता रही

    अब राहों की न मंजिलें रहीं
    डगमगाते सभी पाँव हैं

    रिश्तों की न परवाह है
    संस्कृति का ना बहाव है

    संस्कारों की बात व्यर्थ है
    नारी न अब समर्थ है

    नर, पशु सा व्यर्थ जी रहा
    व्यर्थ साँसों को खींच है रहा

    कहीं तो अंत हो भला
    कहीं तो अब विश्राम हो

    कहीं तो अब विश्राम हो
    कहीं तो अब विश्राम हो

  • शुभ दीवाली आई है- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    शुभ दीवाली आई है- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    दीप जगमगा रहे
    रोशनी है बिखरा रहे

    कि तुम भी रोशन हो चलो
    कि ज्ञान दीप तुम बनो
    रोशन करो तुम आसमान
    रोशन करो तुम ये ज़मीं

    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    कि दीप मुस्करा रहे
    स्याह रात रोशन कर रहे
    कि तुम भी कर्म पथ बढ़ो
    अज्ञान से हर पल लड़ो
    कि दीप दीप जिंदगी
    रोशन करो रोशन करो

    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    कि राह तुम निर्मित करो
    कि अविचल तुम बढे चलो
    कि पग पग हो रोशनी
    बेखौफ़ तुम डटे रहो

    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है
    कि मंद मंद रोशनी
    बिखेरते आगे बढ़ो
    कि आसमान को चूम लो
    ये प्राण हर पल तुम करो
    कि शुभ दीवाली आई है

    खुशियाँ हज़ार लाई है
    समाज में पीड़ित हैं जो
    भूख में भी जीवित हैं जो
    उनको भी साथ ले बढ़ो
    जीवन को उनके रोशन करो
    कि शुभ दीवाली आई है
    खुशियाँ हज़ार लाई है

  • धरती माँ- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    धरती माँ- कविता – मौलिक रचना – अनिल कुमार गुप्ता “अंजुम”

    धरती माँ तुम पावन थीं
    धरती माँ तुम निश्चल थीं
    रूप रंग था सुंदर पावन
    नदियाँ झरने बहते थे कल- कल
    मोहक पावन यौवन था तेरा
    मंदाकिनी पावन थी सखी तुम्हारी
    बहती थी निर्मल मलहारी

    इन्द्रपुरी सा बसता था जीवन
    राकेश ज्योत्सना बरसाता था
    रूप तेरा लगता था पावन
    रत्नाकर था तिलक तुम्हारा
    मेघ बने स्नान तुम्हारा

    पंछी पशु सभी मस्त थे
    पाकर तेरा निर्मल आँचल
    राम कृष्ण बने साक्ष्य तुम्हारे
    पैर पड़े थे जिनके तुझ पर न्यारे
    चहुँ और जीवन – जीवन था
    मानव – मानव सा जीता था

    कोमल स्पर्श से तुमने पाला
    मानिंद स्वर्ग थी छवि तुम्हारी
    आज धरा क्यों डोल रही है
    अस्तित्व को अपने तोल रही है
    पावन गंगा रही ना पावन
    धरती रूप न रहा सुहावन
    अम्बर ओले बरसाता है
    सागर भी सुनामी लाता है

    नदियों में अब रहा ना जीवन
    पुष्कर अस्तित्व को रोते हर – क्षण
    मानव है मानवता खोता
    संस्कार दूर अन्धकार में सोता
    संस्कृति अब राह भटकती
    देवालयों में अब कुकर्म होता
    चाल धरा की बदल रही है
    अस्तित्व को अपने लड़ रही है

    आओ हम मिल प्रण करें अब
    मातु धरा को पुण्य बनाएँ
    इस पर नवजीवन बिखराएँ
    प्रदूषण से करें रक्षा इसकी
    इस पर पावन दीप जलायें

    हरियाली बने इसका गहना
    पावन हो जाए कोना – कोना
    ना रहे बाद ना कोई सुनामी
    धरती माँ की हो अमर कहानी
    धरती माँ की हो अमर कहानी