Author: कविता बहार

  • वक्त ने सितम क्या ढाया है

    वक्त ने सितम क्या ढाया है

    यह कैसी बेवसी है ,कैसा वक्त,
    अपनी हद में रह कर भी सजा पाई
    चाहा ही क्या था फ़कत दो गज जमीन ,
    वो भी न मिली और महाभारत हो गयी।
    चाहा ही क्या था बस अपना हक जीने को
    राजनीति में द्रोपदी गुनाहगार हो गयी।
    त्याग,सेवा ,फर्ज दायित्व ही तो निभाये
    देखो तो फिर भी सीता बदनाम हो गयी।
    छल बल से नारी हरण ,राजहरण हुआ
    छली सब घर रहे ,सचाई दरदर भटक गयी।
    राधा ने किया समर्पण सर्वस्व अपना
    पटरानी पर वहाँ रुक्मणि बन गयी।
    अंजना की बाइस बरस की आस अधूरी
    दो पल पिया संग ,देश से निकल गयी।
    द्वापर ,त्रेता हो या कलयुग ,वक्त न बदला ।
    हर युग में सच की अर्थी निकाली गयी।
    माँ भारती ने झेला ,कोलंबस क्या आया
    दंशाहरण का ,वर्षों जंजीरों मे जकडी गयी ।
    दैहिक गुलामी से छूटी भी न थी हाए,
    मानसिक गुलामी में बंधी रह गयी।
    हर वक्त सच को पर ही उंगली उठी,
    देखो आज पुलवामा फिर रोया है ।
    किया बचाव स्वयं का जब भूमि ने ,
    जयचंद हर घर में घुस के आया है।

    मनोरमा जैन पाखी
    स्वरचित ,मौलिक
    28/02/2019
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • माँ सी हो गई हूँ

    माँ सी हो गई हूँ

    यहाँ माँ पर हिंदी कविता लिखी गयी है .माँ वह है जो हमें जन्म देने के साथ ही हमारा लालन-पालन भी करती हैं। माँ के इस रिश्तें को दुनियां में सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है।

    mother their kids
    माँ पर कविता

    माँ सी हो गई हूँ


    जब भी चादर बदलती
    माँ पर झल्ला पड़ती
        ये क्या है माँ?
    सारा सामान तकिए के नीचे
    सिरहाने में,
    कितना समान हटाऊँ
    चादर बिछाने में!
    बिस्तर का एक पूरा कोना
    जैसे हो स्टोर बना,
    माँ उत्तर देती
    बेटा उमर के साथ याददाश्त कमजोर हो गई है
    क्या कहाँ रखा भूल जाती हूँ,
    इसलिए सिरहाने रख लेती हूँ!
    थोड़ी खीझ होती
    पर मैं चुप रहती,
    धार्मिक किताबों के बिखरे पन्ने,
    जपने वाली माला,दवाइयाँ
    सुई-डोरा,उन स्लाइयाँ,
    डॉ. की पर्ची,उनके नम्बर से भरी डायरी,
    चश्मे का खोल,ईसब घोल,
    पिताजी की तस्वीर,
    हाय रे माँ की जागीर!
    कुछ मुड़े-तुड़े नोट,
    अखबारों की कतरने,
    चमत्कारी भभूति की पुड़िया
    और तो और,
    ब्याही गई नवासी की
    बचपन की गुड़िया!
    आज मैं भी
    माँ सी हो गई हूँ!
    उनकी बूढ़ी,नीली सी आँखें
    मेरी आँखों में समाई है,
    भले ही चेहरे की झुर्रियाँ,
    मेरी सूरत पर उतर नहीं पाई हैं
    बालों की चांदी पर,
    मेहंदी रंग लाई है,
    मोटे फ्रेम के गोल चश्में की जगह,
    पावरफुल लेंस है,
    चलती नहीं लाठी टेककर
    मगर घुटने नहीं दर्द से बेअसर!
    सिरहाने रखे सामान थोड़े कम हैं,
    ढेरों दवाईयाँ नहीं,
    सुई -डोरा,ऊन स्लाइयाँ नहीं,
    नहीं दर्दनिवारक तेल
    स्प्रे है या जैल!
    बाकी सारे सामानों की जगह
    सिर्फ एक मोबाइल है,
    समय बदल गया है न
    नई-नई टेक्नोलॉजी आई है!
    नहीं रखती माँ की तरह
    चमत्कारी भभूति की पुड़िया,
    लेकिन है ब्याही बेटी के
    बचपन की गुड़िया!
    आईना देखूँ तो सोचूँ
    कैसी हो गई हूँ मैं,
    क्या सचमुच
    माँ सी हो गई हूँ मैं…..
    —डॉ. पुष्पा सिंह’प्रेरणा’
    अम्बिकापुर,(छ. ग.)
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • नाराज़- डॉ० ऋचा शर्मा

    नाराज़- डॉ० ऋचा शर्मा

    माँ बेटे से अक्सर रहती है नाराज़
    नहीं करता बेटा कोई भी काज
    यही समझाना चाहती है माँ
    जीवन का गहरा राज़
    बस इसीलिए रहती है बेचारी नाराज़
    बेटे को पहनाना चाहती है
    कामयाबी का ताज़
    समाज को मुँह दिखा पाऊँ
    रख ले बेटा इतनी लाज
    मैं हार चुकी, थक चुकी हूँ
    सुन ले एक बात मेरी आज
    सबकी तरह कर पाऊँ
    मैं भी तुझ पर नाज
    जगा ले भीतर पढ़ने की चाह
    तभी मिलेगी सही व नेक राह
    परीक्षा है तेरी बोर्ड की इसी माह
    केवल किताबों में ही रख तू निगाह
    अच्छा इंसान बनेगा तभी कर पाऊँगी
    अपने जीते जी तेरा ब्याह
    मैं विधवा और तू मेरी इकलोती संतान
    अब न सता आखिर कहना मान जा शैतान
    कठिन परिश्रम से बन जा
    अपने बाबू जी के समान धनवान
    न जाने कब बुलावा आ जाए
    और बुला ले घर अपने भगवान्
    मैं तुझसे पल भर के लिए ही हाेती हूँ नाराज़
    बदल डाल बस तू अपने अंदाज़
    चल अब जल्दी से कर वादा
    आज से, अभी से बदलेगा तू अपना इरादा
    बहुत नुकसान भुगत चुकी हूँ
    अब तो करदे माँ का फ़ायदा
    यही है जीने का सही कायदा
    चल जल्दी से कर वायदा।

    नाम : डॉ० ऋचा शर्मा
    पता : करनाल (हरियाणा)

  • रात ढलती रही

    रात ढलती रही

    रात ढलती रही, दिन निकलते रहे,
    उजली किरणों का अब भी इंतजार है।
    दर्द पलता रहा, दिल के कोने में कहीं ,
    लब पर ख़ामोशियों का इजहार है।
    जीवन का अर्थ इतना सरल तो नहीं,
    कि सूत्र से सवाल हल हो गया।
    एक कदम ही चले थे चुपके से हम,
    सारे शहर में कोलाहल हो गया।
    संवादों का अंतहीन सिलसिला,
    शब्द -बाणों की भरमार है।
    दर्द—–
    जिंदगी का भरोसा हम कैसे करें,
    वक्त इतना मोहलत तो देता नहीं।
    चाँदनी की छटा बिखरे मावस पे कभी,
    रात में सूरज तोनिकलता नहीं ।
    रौशन- सितारों पर पहरा हुआ,
    नजर आता तो बस अंधकार है।
    दर्द ——–
    दुनियां के मुखौटों  की बातें छोड़ो,
    हर रिश्ता है पैबन्द लगा हुआ।
    शब्द -जाल हो गये हैं, जीने के ढंग,
    जिंदगी अर्थ कोहरा- कोहरा हुआ ।
    खुशियाँ दुल्हन सी शर्माती रही,
    दर्द जिंदगी का दावेदार है ।
    दर्द—–
    सुधा शर्मा
    राजिम छत्तीसगढ़
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद

  • बसंत तुम आए क्यों

    बसंत तुम आए क्यों ?

    मन में प्रेम जगाये क्यों?
    बसंत तुम आए क्यों ?

    सुगंधो से भरी
    सभी आम्र मंजरी
    कोयल कूकती फिरे
    इत्ती है बावरी
    सबके ह्रदय में हूक उठाने

    मन में प्रेम जगाये क्यों?
    बसंत तुम आए क्यों ?

    हरी पत्तियाँ बनी तरुणी
    आलिंगन करती लताओं का
    अनुरागी बन भंवर
    कलियों से जा मिला
    सकुचाती हैं हवाएँ
    दिलों को एहसास दिलाने

    मन में प्रेम जगाये क्यों?
    बसंत तुम आए क्यों ?

    सरसों के फूल खिले
    बासन्ती हो गई उपवन
    सूर्य को दे नेह निमंत्रण
    आलिंगन प्रेम पाश का
    मन में प्रेम सुधा बरसाने

    मन में प्रेम जगाये क्यों?
    बसंत तुम आए क्यों ?
    अनिता मंदिलवार “सपना”
    अंबिकापुर सरगुजा छतीसगढ़