Author: कविता बहार

  • मातृभूमि पर कविता

    मातृभूमि पर कविता

    मातृभूमि के लिये नित्य ही,
    अभय हो जीवन दे  दूंगा ।
    तन ,मन , धन निस्वार्थ भाव,
    सर्वस्व समर्पित  कर   दूंगा।

    जिस  मातृभूमि में जन्म लिया है,
    जिसके  अंक  नित  खेल    हूँ।
    शिवा जी दधीचि की मिट्टी   का
    मत   भूलो मैं    चेला        हूँ।

    जहाँ  आदिकाल   से    वीरों    ने
    गिन- गिन  कर शीश     चढा़ये है।
    वीर शिवाजी,     महाराणा    ने,
    जीवन    दांव पर   लगाये       है।

    जिस  मातृभूमि  को  देख   व्यथित,
    हर मानव  शोला     बना    सदा।
    अत़्याचार   उन्मूलन के    लिए  ,
    हर  तन  बम  गोला बना   सदा।

    जहाँ   कर्मवती लक्ष्मी  बाई    ने,
    भारी    धूम       मचाई         है ।
    उसी   देश      का  अंजल   खाकर,
    मैंने     शिक्षा  यहां     पाई     है।

    मातृ    भूमि   तो  अग्र      खडी़,
    प्रस्तुत  पृष्ठ    यह   निज   जीवन।
    जन्मभूमि   पर  मुझको    गौरव,
    न्यौछावर     कर     दूं   यह जीवन ।


      कालिका   प्रसाद   सेमवाल

  • चक्रव्यूह में फंसी बेटी- कृष्ण सैनी

    चक्रव्यूह में फंसी बेटी


                          (1)
    बर्फीली सर्दी में नवजात बेटी को,
    जो छोड़ देते झाड़ियों में निराधार।
    वे बेटी को अभिशाप समझते,
    ऐसे पत्थर दिलों को धिक्कार।
                        (2)
    जो कोख में ही कत्ल करके भ्रूण,
    मोटी कमाई का कर रहे व्यापार।
    निर्दयी माता-पिता फोड़े की तरह,
    गर्भपात करवाकर बन रहे खूंखार।
                          (3)
    सृजन की देवी के प्रति मेरे स्नेहभाव,
    घर में खुशहाली सी छाई है।
    इक नन्ही सी सुकोमल गुड़िया,
    नवकली मेरे सूने घर में आई है।
                          (4)
    इस नन्ही बिटिया को शिक्षित करके,
    आई.ए.एस. अधिकारी इसे बनाऊंगा।
    अगणित कष्ट उठा करके भी मैं,
    इसका उज्ज्वल भविष्य चमकाऊँगा।
                          (5)
    सबको मिष्ठान खिलाने के प्रीत्यर्थ,
    आनन्द, हर्षोल्लास का दिन आया है।
    यह बिटिया हमारी संस्कृति है,
    प्रकृति की अमूल्य धरोहर माया है।
                         

    (6)
    आज वात्सल्य भाव से सरोबार,
    मेरा दिल गदगद हो आया है।
    मेरी बेटी ने वरीयता सूची में,
    स्व सर्वप्रथम स्थान बनाया है।
                          (7)
    पूरे जनपद में सर्वाधिक अंक मिले,
    खुशी में वाद्ययंत्र, ढोल बजाऊंगा।
    स्नेहीजनों को सादर आमंत्रित कर,
    खीर,जलेबी,बर्फी खूब खिलाऊंगा।
                          (8)
    चारो ओर साँस्कृतिक प्रदूषण फैला,
    बेटी मेरी बात स्वीकार करो।
    संस्कारित जीवन,चारित्रिक शिक्षा,
    नैतिक अभ्युदय सद्व्यवहार करो।
                          (9)
    सह शिक्षा का वातावरण भयावह,
    फूँक-फूँक करके पग धरना।
    अच्छी संगति,संयमित जीवन,
    उच्चादर्शों का तुम अनुशीलन करना।
                          (10)
    पाश्चात्य संस्कृति का रंग चढ़ा,
    उच्छृंखल विष्याकर्षण प्रादुर्भाव हुआ।
    अनंग तरंग अनुषंग हो गया,
    दैनिकचर्या में पतन प्रवाह हुआ।
                      

        (11)
    कब घर से आत्मजा गायब हुई,
    दो दिवस हो गए गए हुए।
    बिन आज्ञा घर से नही जाती थी,
    आज कहाँ गई किसी को बिना कहे।
                          (12)
    पुलिस से मुझे दुःखद खबर मिली,
    बेटी की आंचलिक गाँव मे लाश मिली।
    अनुमानित अठारह वर्ष उम्र उसकी,
    जला चेहरा रुकी हुई सी साँस मिली।
                          (13)
    रोता हुआ मैं गया वहाँ पर,
    वही हुआ जिसका मुझे डर था।
    पड़ी थी प्यारी बुलबुल क्षत-विक्षत,
    दरिंदो ने नोंच लिया उसका पर था।
                          (14)
    सारे गाँव मे भय व्याप्त हुआ,
    कई नेता लोग थे आये हुए।
    मीडियाकर्मी वहाँ सक्रिय हो गए,
    दूरदर्शन पर है छाये हुए।
                          (15)
    झूठे आश्वासन वहाँ मिले हमे,
    पुलिस सक्रियता से पकड़े गए यमदूत।
    सामूहिक दुष्कर्म में पकड़ा गया,
    प्रसिध्द नेताजी का उदण्ड सपूत।
                     

         (16)
    मीडिया पत्रकार सब शांत हुए,
    दो दिन में हो गई जमानत।
    न्यूज छापना बन्द कर दिया,
    कुकर्मियों ने छोड़ी नहीं अपनी लत।
                          (17)
    बहुत किया आंदोलन जनता ने,
    पर षड्यंत्र का विस्तार मिला।
    कतिपय दुराचारियों का भेद खुला,
    यौनाचार में आजीवन कारावास मिला।
                          (18)
    नारी अस्मिता फँसी चक्रव्यूह में,
    यहाँ काले कोटो का दरबार हुआ।
    बेटी बाद कलयुगी पिता का,
    सर्व जीवन नरकदर्द दुश्वार हुआ।
                          (19)
    धरती समा जाए रसातल मे,
    मानवता अब हो गई शर्मसार।
    अबला को सबला बनना होगा,
    प्रज्ज्वलित अग्नि चेतना या अंगार।


    ©कवि कृष्ण सैनी ,विराटनगर(जयपुर)

  • अंतरतम पीड़ा जागी

    अंतरतम पीड़ा जागी

    खोया स्वत्व दिवा ने अपना
    अंतरतम पीड़ा जागी
    घूँघट हैं छुपाये तब तब ही
    धडकन में व्रीडा जागी ।


    अधर कपोल अबीर भरे से
    सस्मित हास् लुटाती सी
    सतरंगी सी चुनर ओढ़े
    द्वन्द विरोध मिटाती सी
    थाम हाथ  साजन के कर में
    सकुचाती अलबेली सी
    सिहर ठिठक जब पॉव बढ़ा
    तो ठाड़ी रही नवेली सी


    आई मन मे छायी तन में
    सकुच ठिठक सब बंध गए
    हुआ गगन स्वर्णिम आरक्तिक
    खग कलरव निर्द्वन्द गए
    चपल चमक चपला सी मन मे
    मेरे मन को रोक लिया
    कैसे करूँ अभिसार सखी मैं
    उसने मुझको टोक दिया ।


    सुशीला जोशी
    मुजफ्फरनगर

  • कोयल रानी

    कोयल रानी

    ओ शर्मीली कोयल रानी आज जरा तुम गा दो ना।
    आम वृक्ष के झुरमुट में छुपकर मधुर गीत सुना दो ना।।

    शीतल सुरभित मंद पवन है और आम का अमृतरस ।
    आम से भी मीठी तेरी बोली सुनने को जी रहा तरस ।।

    वसंत ऋतु आता तभी तुम दिखती इन आमों की डाली पे।
    मिसरी सी तेरी बोली है अब गा दो ना तुम डाली से।।

    ओ वनप्रिया, सारिका रानी आम की डलीया झूम रही ।
    मनमोहक गान सुनने को पतिया तेरी पलकें चूम रही ।।

    कुहू-कुहू की आवाज से तेरी गूँज उठी सारी बगिया ।
    तेरी मीठी बोली से कुहुकिनी ,ऋतुराज का आगमन शुरू हुआ ।।

    बौरे आये आम वृक्ष पर और बौरो से बना टिकोरा।
    आम की डाली पर जब तुम गाती तो मैं आता दौड़ा-दौड़ा।।

    चिड़ियों की रानी कहलाती मीठी आवाज सुनाती हो।
    आम की डाली चढ़ कर कोकिल तुम रसीले आम टपकाती हो।।

    टपके आम को खा-खा कर खूब सुनता हूँ मधुर गान ।
    सचमुच तुम वसंत दूत हो मैं भी करता हूँ गुणगान ।।

    ✍बाँके बिहारी बरबीगहीया

  • भग्नावशेष

    भग्नावशेष

    ये भग्नावशेष है।
    यहाँ नहीं था कोई मंदिर
    न थी कोई मस्जिद ।
    न ही यह किसी राजे महाराजों  की
    मुहब्बत का दिखावा था।
    यहाँ नहीं कोई रंगमहल
    न ही दीवाने आम
    दीवाने खास।


    न ही स्नानागार न स्विमिंग पूल।
    न खिड़की न झरोखे।
    न झालरें।
    न कुर्सियाँ न सोफे।
    बंदूकें न तोपें।
    यहाँ कभी गूँजी नहीं घोड़ों की टापें।
    यहाँ खूँटों में बंधते थे बैल और गाय
    यहाँ बुलंद दरवाजा की जगह थी
    एक बाँस की टट्टी ।


    और दीवारों पर ठुकी 
    बाँस की खूँटियों में टँगे होते थे
    नांधा पैना और  बैलों की घंटी।
    अभी भी बचे हैं जो भग्नावशेष
    कुछ फूस ,कुछ खपड़े ।
    कुछ ढही हुई मिट्टी की दीवारें।
    जो पिछली बरसात को झेल नहीं पाए थे।
    और इसी में दबकर मर गए थे
    धनिया और गोबर
    दो बैल और एक गाय ।
    जिनका इतिहास में कहीं कोई जिक्र नहीं।
    आज भी यहाँ एक पिचकी हुई देगची
    एक मिट्टी की हांडी
    एक टूटे हुए हत्थे की कड़ाही
    एक फावड़ा और कुल्हाड़ी
    जिन्हें पता है कि यहाँ रहते थे
    गोबर और धनिया
    खेत से उपजाते थे  अन्न।


    और पड़ोस में साग भाजी बाँटते थे खाते थे।
    उनकी यादों को सँजोए मौन हैं
    उन्हें इतनी  सुध नहीं
    कि  बता सकें
    वे किसके थे और कौन हैं।

    सुनील गुप्ता केसला रोड सीतापुर सरगुजा छत्तीसगढ