दर्द न जाने कोय….. बाल भिक्षु पर कविता
(विधाता छंद मुक्तक)
झुकी पलकें निहारें ये,
रुपैये को प्रदाता को।
जुबानें बन्द दोनो की,
करें यों याद माता को।
अनाथों ने, भिखारी नें,
तुम्हारा क्या बिगाड़ा है,
दया आती नहीं देखो,
निठुर देवों विधाता को।
बना लाचार जीवन को,
अकेला छोड़ कर इनको।
गये माँ बाप जाने क्यों,
गरीबी खा गई जिनको।
सुने अब कौन जो सोचें,
पढाई या ठिकाने की,
मिला खैरात ही जीवन,
गुजर खैरात से तन को।
गरीबी मार ऐसी है,
कि जो मरने नहीं देती।
बिचारा मान देती है,
परीक्षा सख्त है लेती।
निवाले कीमती लगते,
रुपैया चाक के जैसा,
विधाता के बने लेखे,
करें ये भीख की खेती।
अनाथों को अभावों का,
सही यों साथ मिल जाता।
विधाता से गरीबी का,
महा वरदान जो पाता।
निगाहें ढूँढ़ती रहती,
कहीं दातार मिल जाए,
व्यथा को आज मैं उनकी,
सरे … बाजार हूँ गाता।
किये क्या कर्म हैं ऐसे,
सहे फल ये बिना बातें।
न दिन को ठौर मिलती है,
नही बीतें सुखी रातें।
धरा ही मात है इनकी,
पिता आकाश वासी है,
समाजों की उदासीनी,
कहाँ मनुजात जज्बातें।
बाबूलाल शर्मा