धन्य वही धन जो करे आत्म-जगत् कल्याण
धन्य वही धन जो करे, आत्म-जगत् कल्याण।
करे कामना धर्म की,मिले मधुर निर्वाण।
संग्रह केवल वस्तु का,विग्रह से अनुबंध।
सुविचारों की संपदा,से संभव संबंध।।
धन-दौलत के साथ ही,बढ़ता क्यों अपराध।
कठिन दंड भी शांति को,कहाँ सका है साध।।
शिक्षा,जब माना गया,केवल भौतिक ज्ञान।
मानव-मूल्यों के बिना,दुखद भ्राँत उत्थान।।
निधन हुआ धन से अगर,मन का तो अभिशाप।
महताकांक्षाएँ जनें, विपुल शोक संताप।।
हमें खोजना चाहिए, अपराधों का मूल।
डार-पाते को तोड़कर, कर न सकें निर्मूल।।
त्यक्त भूमि का शाप है, बढ़ते खरपतवार।
कर्म-भूमि में धर्म की, होती पैदावार ।।
कानूनों के पेच से, संकट में है न्याय।
बिना धर्म कानून भी, हो जाता असहाय।।
द्वैत-द्वेष ही शांति के, हैं मौलिक अवरोध।
समता सहअस्तित्व का,आवश्यक है बोध।
तम जीता जाता नहीं,चला तीर-तलवार।
विजय दिखेगी सामने, तू बस दीपक बार।।
।। रेखराम साहू ।।