क्यों करता हूँ कागज काले..
क्यों करता हूं कागज काले …??
बैठा एक दिन सोच कर यूं ही ,
शब्दों को बस पकड़े और उछाले ।
आसमान यह कितना विस्तृत ..?
क्या इस पर लिख पाऊंगा ?
जर्रा हूं मैं इस माटी का,
माटी में मिल जाऊंगा।
फिर भी जाने कहां-कहां से ,
कौन्ध उतर सी आती है ..??
अक्षर का लेकर स्वरूप वही ,
कागज पर छा जाती है ।
लिखूं लिखूं मैं किस-किस की छवि को..??
सोच कर मन घबराए ।
वह बैठा है मेरे ही मन में ,
बस वही राह दिखाएं ।
कहता है वह और लिखता मैं हूं ,
क्यों ना समझे ये जग..??
पार तभी तो पाएगा ,
जब वह उतरेगा स्वमग ।
कुछ करने, मानवता के पण में ,
उसने मुझे चुना है ।
सुनो ना सुनो तुम जग वालों ,
मैंने तो यही सुना है ।
अखबारों के पृष्टों पर छा जाना,
मेरा इसमें ध्यान नहीं ।
सम्मान पन्नों के बोझ तले दब जाऊं ,
यह भी मेरा अरमान नहीं ।
कागज पर मैं छा जाना चाहूँ ।
जो दिल में है सब बताना चाहूँ ।
कागज की छोटी नाव बनाकर,
कलम से उसको मैं खेना चाहता हूँ ।
जो आवाजें दबी हुई आसपास में,
मैं उनकी ही बस कहना चाहता हूँ ।
बचपन की भूली हुई भक्ति ने ,
शक्ति ये दिखलाई है ।
उसने जो कुछ मुझे दिया था,
अब लौटाने की रुत आई है ।
तन में , मन में
या इस जग के, जन-जन में
बस रहता विश्वास है उसका ।
सच झूठ के संसार में ,
एक वास्तविक रूप है उसका।
है बहुत कुछ अभी जिंदगी और बन्दगी में उसकी ।
नेमत जो ‘अजस्र’ बनी रहे तो करता रहूं बस खिदमत उसकी ।
✍✍ *डी कुमार–अजस्र(दुर्गेश मेघवाल,बून्दी/राज.)*
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