कविता का बाजार
अब लगता है लग रहा,कविता का बाजार।
और कदाचित हो रहा,इसका भी व्यापार।।
मानव में गुण-दोष का,स्वाभाविक है धर्म।
लिखने-पढ़ने से अधिक,खुलता है यह मर्म।।
हमको करना चाहिए,सच का नित सम्मान।
दोष बताकर हित करें,परिमार्जित हो ज्ञान।।
कोई भी ऐसा नहीं,नहीं करे जो भूल।
किन्तु सुधारे भूल जो,उसका पथ अनुकूल ।।
परिभाषित करना कठिन,कविता का संसार।
कथ्य,शिल्प से लोक का साधन समझें सार।।
यशोलाभ हो या न हो,जागृत हो कर्तव्य।
शब्द देह तो सत्य से,पाती जीवन भव्य।।
सच को कहने का सदा,हो सुंदर सा ढंग।
वाणी की गंगा बहे,शिव-शिव करे तरंग।।
टूटे-फूटे शब्द भी,होते हैं अनमोल ।
प्रेम भाव उनमें सदा,मधुरस देते घोल।।
कविता,रे मन बावरे,प्रेम,नहीं कुछ और।
साध सके शुभ लोक का,शब्द वही सिरमौर।।
——R.R.Sahu
कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद