भारत रत्न लताजी – ज्ञान भण्डारी

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दूर झितिज,एक तारा टूटा ,
रूठा धरा से, वो यों रूठा ,
स्वर लहरी का , हर सुर डोला,
शोकाकुल है बसंती चोला।

कर्तव्य बोथ का भान तुम्हे था ,
वेदना का अहसास तुम्हे था ,
तुमने किए लाखो समर्पण ,
उत्तम मिसाल दी नारी जीवन ।

साधिका थी तुम कंठ कोकिला ,
रूप हंस वाहिनी तुम थी ,नगरिया,
शब्द ,कलश खनकाती तुम थी ,
हर शब्दो का श्रृंगार करती तुम थी ।

न चमकेगा , न जगमगाएगा ,ऐसा कोई सितारा ।
न यश गौरव ताज पहनेगा , ऐसा कोई सितारा ।

लय, सुर, नदिया तुम बहाती थी
अंखियों का मौसम तुम बदलती थी
हर शब्दो में जान तुम फूकती थी ,
सुरो की महफिल तुम सजाती थी।

रूठे है सारे ख्वाब जमाने के ,
चांद, सूरज कैसे रूप निहारेगे जल दर्पण में,
मोहन की मुरलियां,में सारे ,ताल,मिलाकर खुद ही छुपी बासूरियां के छिद्रों में ।

सारे शब्द ,मौन,सारे अर्थ मौन ,
सारे सुर, ताल, लय हो गए मौन,
पंच तत्वों में सब , समा कर सबके,
दिल में अव्यक्त जगह बना कर,
देवताओं के पालकी में जा पहुंची ,
कृष्ण लोक में ।

रचयिता ज्ञान भण्डारी।

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