मैं हूँ मीरा बावरी – केवरा यदु “मीरा “
तिथी अष्टमी भाद्रपद, जन्मे कृष्ण मुरार ।
प्रगटे आधी रात को ,सोये पहरेदार ।।
बेड़ी टूटी हाथ की, खुलते बंधन पाँव ।
प्रभु की लीला देखिये, सुन्दर गोकुल गाँव ।।
रूप चतुर्भुज देख कर, मातु हुई हैरान।
बाल रूप दिखलाइये,हे प्रभु कृपानिधान।।
बाल रूप में प्रकट हो, होय लगे किलकार।
मगन हुई माँ देवकी, बालक रूप निहार ।।
उँगली पकड़े पाँव के, मुख में दे हरि ड़ाल।
मुदित देवकी मातु है, देख लाल का हाल।।
जी भर मातु निहारती, कहाँ छुपाऊँ लाल।
मामा तेरा कंस ही, आयेगा बन काल।।
सूप रखे वसुदेव जी,गै गोकुल के बाट।
यमुना मैंया राह में, बढती रही सपाट।।
खेल रचाया श्याम ने, पग को दिया बढ़ाय।
यमुना माता श्री चरण, मस्तक रही लगाय।।
यमुना कहती श्याम जी, पग धर दो अब माथ।
कब से बाट निहारती, होऊँ आज सनाथ।।
सिर पर मोहन को लिये, पहुँचे यशुदा द्वार।
गहरी निंदिया सो रही, आये हरि को ड़ार।।
चंदन का है पालना,रेशम लागे ड़ोर ।
झूला झूले लालना ,नटवर नंद किशोर ।।
जनम देवकी गर्भ से, यशुमति गोद खिलाय।
छलिया वो मन मोहना, नित नव खेल दिखाय।।
श्याम नाम निश दिन जपूँ, मूरत नैन समाय।
हुई बावरी श्याम की,और न कछु सुहाय।।
मैं हूँ मीरा बावरी, चरण छुवन की आस।
जीवन धन वो साँवरा, वही आस विस्वास ।।
केवरा यदु “मीरा “
राजिम