क्रोध पर कविता

क्रोध पर कविता

मुझे नहीं पता
पहली बार
मेरे भीतर
कब जागा था क्रोध
शुरूआत चिनगारी-सी हुई होगी
आज आग रूप में
साकार हो चुकी है
फिर भी इतनी भीषण नहीं है
कि अपनी आंच से किसी को बुरी तरह झुलसा दे
अपनी तीव्र लपट से जला दे किसी का घर
या राख कर दे किसी की फसलों से भरी खेत
हाँ कभी-कभी
अपनी क्रोध की ऊष्मा से
बेकार की जिद्द पर अड़े
बीबी और बच्चों को डांट लेता हूँ
कॉलेज में अपनी कक्षा छोड़
मोबाइल पर गपियाते, सेल्फ़ी लेते
विद्यार्थियों को टोक देता हूँ
मित्रों से मतभेद होने पर
अपने तीक्ष्ण तपते शब्दों से
आपत्ति दर्ज कर लेता हूँ
और अक्सर ख़ुद को
ख़ुद के ख़िलाफ़ खड़ाकर झिड़क लेता हूँ
पर किसी का अस्तित्व ही मिटा दे
इतना भयावह और इतना ख़तरनाक
कभी नहीं होता मेरा क्रोध।

— नरेन्द्र कुमार कुलमित्र
9755852479

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *