हाइकु अर्द्धशतक
२५१/ रात की सब्जी~
जय वीरू की जोड़ी
आलू बैंगन।
२५२/ पंचफोरन~
बैंगन की कलौंजी
प्लेट में सजा।
२५३/ बाजार सजा~
डलिया में बैंगन
इतरा रहा।
२५४/ सब्जी का राजा~(बैंगन)
ताज भांति सिर में
डंठल सजा।
२५५/ रात की सब्जी~
जय वीरू की जोड़ी
आलू बैंगन।
२५६/ पंचफोरन~
बैंगन की कलौंजी
प्लेट में सजा।
२५७/ विषम दशा~
साहसी नागफनी
जीके दिखाता।
२५८/ जुदा कुरूप~
गमला में सजता
मैं नागफनी।
२५९/ कंटीला बन
वजूद से लड़ता
ज्यों नागफनी।
२६०/ जालिका वस्त्र~
शूल बना श्रृंगार
नागफनी की।
२६१/ हाथ बढ़ाता~
डसता नागफनी
उठाके फन ।
२६२/ किसान खु्श~
निकले फूलझड़ी
बाजरा बाली।
२६३/ बाजरा खड़ी~
पोषण भरपूर
पके खिचड़ी।
२६४/ पोषण भरी~
बाजरे की रोटियां
कैल्शियम से।
२६५/ दर्द उत्पत्ति~
रेत मोती में ढले
अद्भुत सीप।
२६६/ बादल सीप~
तेज आंधी के साथ
गिराये मोती।
२६७/ सो जा मनुवा
ये रात्रि बेला तेरी
तेरी ख्वाब की।
२६८/ महके मिट्टी~
धधकती धरा पे
पहली वर्षा।
२६९/ घास पे बुंदे~
बिछी मोती जड़ित
हरी चुनर।
२७०/ टूटे हैं तना~
आंधी ने उसे तोड़ा
जो है तना।
२७१/ चीटीं चलती
अथक अविराम~
जीवन सीख।
२७२/ छत पे दाना~
चुग गई गौरेया
अपना खाना।
२७३/ खेल तमाशा~
खिलौने का संसार
मीना बाजार।
२७४/ झींगुर शोर~
खामोशी से सुनती
मेरी तन्हाई।
२७५/ घर महके~
गृह लक्ष्मी आने के
संकेत मिले।
२७६/ रिश्तों का जाल~
खाट का ताना बाना
उलझा सिरा।
२७७/ फूलों की माला~
दादा की तस्वीर पे
यादों की पीर।
२७८/ घूमर,पर्दे …..~
दीदी जोड़ी हरेक
घर का कोना ।
२७९/ घर से दूर~
याद आये भुख में
मां की रोटियां।
२८०/
मां का आंचल~
जेठ दुपहरी में
छाये बादल।
२८१/ अनाथ बच्चे
अचरच तांकते~
खिलौने जिद्द।
२८२/ वट पूजन ~
परिक्रमा करें स्त्री
बन सावित्री।
२८३/ सूत के धागे~
पति दीर्घायु भव
स्त्री की कामना।
२८४/ ज्येष्ठ तेरस~
वट सावित्री व्रत
हिंदू संस्कृति।
२८५/ व्रत पूजन~
सत्यवान की कथा
वट के तले।
२८६/ दिल आईना
टूट बिखर गया~
शोर हुई ना।
२८७/ सूखा दरिया~
हो रहे हैं बर्बाद
कृषि जरिया।
२८८/ विलासी युग
शांत न कर सके~
मानव भूख।
२८९/ टार्च कटारी
चक्रव्यूह भेदती~
तम पे भारी।
२९०/ हिलती रही
रात भर किवाड़~
जगती रही।
२९१/ बसंत ऋतु
कोयल की पुकार
उमड़े प्यार।
२९२/ ग्रीष्म की ऋतु
सूर्य तेज तर्रार
गर्मी की मार।
२९३/ वर्षा की ऋतु
धरा करे श्रृंगार
लाये बहार।
२९४/ हेमंत ऋतु
लाये तिज त्यौहार
हरेक द्वार।
२९५/ शिशिर ऋतु
खिले फूल मदार
लगे अंगार।
२९६/
कलमकार
सबको राह दिखा
तू कर्णधार।
२९७/ धरा की ताप
हरते मौन वृक्ष
तप करते।
२९८/ पिता के बीज
मां की कोख है धरा
प्रेम से सींच।
२९९/ माटी पुतले
टुटते बिखरते
माटी में मिले।
३००/ शरद ऋतु
अमृत की फुहार
भीगे संसार।