मनीभाई के हाइकु अर्द्धशतक भाग 5

हाइकु अर्द्धशतक

हाइकु

२०१/ प्रभात बेला~  

शहर में सजती

रंगीन मेला।

२०२/ हिलते पात~

दिवस सुधि लेते

आई प्रभात।

२०३/ खनिज खान~
पठार की जमीन
चौड़ा सपाट।

२०४/
रूई बिछौना~
पामीर के पठार
संसार छत।

२०५/ फंसा पतंगा

फूल की लालच में

लोभ है जाल।

२०६/ पिरो के रखा~  

एकता के सूत्र में

अंतरजाल।  

२०७/ बारिश बूंदें~
उगी है मशरूम
छतरी ताने।

२०८/
राजसी शान~
मशरूम आसन
बैठा मेढ़क।

२०९/ ताजगी देता~
अदरक की चाय
मन को भाय।

२१०/ खांसी की दवा~
अदरक का काढ़ा
भगाये जाड़ा।

२११/ बांस सी पत्ती
हल्दी सा तना शल्क
है अदरक।

२१२/ फल आम के,
बरगद के पत्ते।
रूप आक के~

२१३/ मात्रा का फेर~
उचित मात्रा दवा
आक  विषैला।

२१४/ अंतर लाल
श्वेत कटोरी फूल~
रक्तार्क आक।

२१५/ एकता सूत्र~
मुण्डक पुष्पक्रम
गेंदा का फूल।

२१६/ नभ के तारे~
धरती में खिले हैं
गेंदा बन के।

२१७/ जीवन  छीना~
तड़प रही मीन
जल के बिना।

२१८/ माया का जाल ~
निगली  बंशी कांटा
लाचार मीन।

२१९/ विद्रोही बन~
ना हो द्रोहभावना
किसी के प्रति।

२२०/ भम्र का भूत~
संबंधों में दरार
तोड़ता प्यार।

२२१/ नवजीवन~
अण्डा पड़े दरार
निकला चूजा।

२२२/ जल संकट~
जमीन में दरार
छाया अकाल।  

२२३/ भूमि स्खलन
झुर्रीदार दीवार
पड़ी दरार।

२२४/ सुखते ताल
पड़ गई दरार
पानी की मार।

२२५/ वो घुंघट में~
कलसी पानी भरे
पनघट में।

२२६/ जल जीवन~
पनघट है दूर
जाना जरूर।

२२७/ मिली आजादी~
जाती हैं पनघट
हाल सुनाती।

२२८/ वो घुंघट में~
कलसी पानी भरे
पनघट में।

२२९/ जल जीवन~
पनघट है दूर
जाना जरूर।

२३०/ मिली आजादी~
जाती हैं पनघट
हाल सुनाती।

२३१/ देश की शान~
सीढ़िया नुमा खेत
चाय बागान ।

२३२/ सेब बागान~
हिमाचल गोद में
रत्नों की खान।

२३३/ आंतकी वृद्धि~
विस्तृत जलकुंभी
संपूर्ण ताल।

२३४/ घड़ा सा तना~
जलरागी पादप
है जलकुंभी।

२३५/ जल खतरा~
बंगाल का आतंक
है जलकुंभी।

२३६/ औषधालय~
संजीवनी पाकर
मन हर्षाये।

२३७/ औषधालय~
डाक्टर की पर्ची में
दलाली बंधा।

२३८/ भटका नाव~
रहस्यमयी टापू
पास बुलाये।

२३९/ सृष्टि का अंत~
विनाश संकेतक
डुबता टापू ।

२४०/ दूर सितारे~
हमारी करतूत
वो देख रहा।

२४१/ पिया लजाई~
चमकते प्रेम से
नैन सितारे।

२४२/ हरी चादर~
शैवाल ने घोला है
अपना रंग।

२४३/ लहर उठी~
फट गया शैवाल
भय खाकर।

२४४/ पौष्टिक खाना~
समुद्री चारागाह
बना शैवाल।

२४५/ अनभिज्ञता~
औंधे मुंह गिराया
शैवाल श्लेष्मा।

२४६/ हर सफर~
बनके परछाई
चलना सखि।

२४७/ शुभ विवाह~
मंडप परछाई
हल्दी निखरा।

२४८/ भीषण गर्मी~
पीपल परछाई
गंगा की घाट।

२४९/ चंद्र ग्रहण~
परछाई धरा की
केतु है माया।

२५०/ सूर्य ग्रहण~
परछाई धरा की
राहू की साया।

मनीभाई नवरत्न

यह काव्य रचना छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले के बसना ब्लाक क्षेत्र के मनीभाई नवरत्न द्वारा रचित है। अभी आप कई ब्लॉग पर लेखन कर रहे हैं। आप कविता बहार के संस्थापक और संचालक भी है । अभी आप कविता बहार पब्लिकेशन में संपादन और पृष्ठीय साजसज्जा का दायित्व भी निभा रहे हैं । हाइकु मञ्जूषा, हाइकु की सुगंध ,छत्तीसगढ़ सम्पूर्ण दर्शन , चारू चिन्मय चोका आदि पुस्तकों में रचना प्रकाशित हो चुकी हैं।

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