मनीलाल पटेल उर्फ़ मनीभाई नवरत्न की 10 कवितायेँ (खंड २)

यहाँ पर मनीलाल पटेल उर्फ़ मनीभाई नवरत्न की 10 कवितायेँ एक साथ दिए जा रहे हैं आपको कौन सी कविता अच्छी लगी हो ,कमेंट कर जरुर बताएँगे.

हिंदी कविता 1 आगे बढ़ो

आगे बढ़ो , आगे बढ़ो ,पीछे ना हटो तुम ।
रख के खुद से भरोसा,मुश्किलों से निपटो तुम।

उबड़ खाबड़ है तेरी राह ।
मंजिल पर रहे तेरी निगाह ।
खोये ना कभी आत्मबल को
करना पड़े चाहे आत्मदाह।
वतन मांगता है बलिदान
वतन के लिए मर मिटो तुम ।।1।।

अन्याय के खिलाफ तेरा विद्रोह हो।
पद-प्रतिष्ठा पर कभी ना मोह हो।
तोड़ सके ना तुझे कोई लालच
इरादे तेरे मजबूत जैसे लौह हो।
साजिशें चल रही फूट डालने की
आपस में ना बंटो तुम ।।2।।

मिलती नहीं जीत आसान से
आस रखो अपने भगवान से ब।
बहुत जी चुके बंधनों के दायरे में
अब मरना है हमें स्वाभिमान से ।
बहुत कर चुके क्रांति लाने की बातें
अब करो सिद्धांतों को ना रटो तुम।।3।।

हिंदी कविता 2 नारी!

हे नारी!
तू क्यों शर्मशार  है?
समाज से भला क्यों गुहार है?
मत मांग, इससे
कोई दया की भीख ।
वो सब बातें जिनमें
पुरूष का वर्चस्व,
उन सबको तू सीख।।
हे नारी!
तू क्यों शर्मशार  है?

है तुझमें भी अदम्य क्षमता
कम क्यों आंकती, तु खुद को।
इतिहास साक्षी, तेरे कारनामों  से ।
मत समेट अपने वजूद को।
चारदीवारी से बाहर आ ,
खुद से मिलने के लिए ।
तू कली ! धूप से ना मुरझा
तैयार हो खिलने के लिए ।

कोई कब तक लड़ेगा ,
तेरी हिस्से की लड़ाई ।
आखिर कब तक चलेगी ,
पीछे-पीछे बन परछाई ।
तुझे अबला जान के ही
तेरा अपमान हुआ है ।
देर ही सही हर युग में,
मगर तेरा सम्मान हुआ है ।
चल एक हो अन्याय के खिलाफ ।
तेरी बिखराव ही
तेरी दुर्गति का कारण है ।

मत कोस अपने भाग्य को
ये जीवन संघर्ष का रण है।
जब हर तरफ तू
संबल नजर आयेगी ।
ये धरा तेरे कर्मों से
स्वर्ग बन उभर आयेगी ।
हे नारी!
तू क्यों शर्मशार  है?

रचयिता :- मनीभाई “नवरत्न”

हिंदी कविता 3 काव्य विषय की विराटता-

ये काव्य युग,
सम्मान का युग है।
चलो अच्छी बात है।
हमें खुशी है
एक कवि के होने के नाते,
समाज के कुछ तो काम आते।
पर ध्यान रहे ,
सारा श्रेय मुझे ही लेना बेमानी है।
चूंकि सम्मान की पीछे
और भी कहानी है।
कंगूरा सा कवि लालायित है
चमकने को जमाने में।
नींव सा रचना
अभी भी छटपटा रही है
पहचान पाने में।
बिन नींव के कंगूरे की
एक अधूरी दास्तां है।
कवि का वजूद भी तो
कविता से ही वास्ता है।
और कविता का वास्ता
ईश्वर, प्रकृति से,
सामाजिक रीति से।
दीन-हीन की दशा से
मौसम-रंग-दिशा से।
कवि तो बौना है
उस अर्जुन की भांति
जो यह समझ लेता
कि महाभारत युद्ध
अपने दम पर जीता।
जानके अनजान रहता
काव्य विषय की महत्ता
उसका विराट स्वरूप।
मनीभाई’नवरत्न’,

हिंदी कविता 4 अंतकाल

मुझे शिकवा नहीं रहेगी
गर तू मुझे छोड़ दे,
मेरे अंतकाल में।
मुझे खुशी तो जरूर होगी
कि हर लम्हा साथ दे ,
तू मेरे हर हाल में।
हां !मैं जन्मदाता हूँ।
तेरा भाग्यविधाता हूँ।
मुझे अच्छा लगता है,
जो कभी समय बिताता हूँ.
तेरे संग मैं।

मेरा चिराग है तू
सबको बताता हूँ.
कभी मुस्कुराता हूँ
और आंखें भर जाता हूँ।
जो अपना कहके तुझे
मेरा हक जताता हूँ।
और ना दे पाता समय
जितना तेरे लिए संसाधन जुटाता हूँ।

लोग कहे तू मेरी छायाप्रति
मेरे वंश की पकड़े मशाल ज्योति।
मुझसे ही निर्धारित भविष्य मेरा
मैं कृषक हूँ और तू फसल मेरा।
कल जो तू होगा
मेरे परवरिश से।
कल तो मेरा भी होगा
मेरे परवरिश से।

तू बोझ नहीं मेरा
फूल की डाली है।
घर का कोना कोना सजा दे
वो भावी माली है।
तुझे ताड़ना और फटकार
मेरी मजबूरी है।
आ पास आ ,करूँ लाड़ दुलार
तू मेरी कमजोरी है।
धीरे धीरे तुझमें सिमटता
मेरा जीवन सारा।
तेरे संग बहता जाऊँ
है ये मोह की धारा।

जग में कुसंस्कारों की
चलती है चाकू छूरियां।
मेरे रहते परवाह ना कर
अभी जान बची है
इस ढाल में।
तुझे शिकवा नहीं रहेगी
कि मैंने छोड़ दिया अकेला
तेरे अंतकाल में।

हिंदी कविता 5 आरक्षण का बाना

तथाकथित उच्च वर्ग
जवाब मांग रहा है,
निम्न वर्ग से –
‘रे अछूत !
तुझे लज्जा नहीं आती।
आरक्षण के दम पर
इतरा रहा है ।
हमारे हक का खा रहा है ।
तेरी औकात क्या ?
तेरी योग्यता क्या ?
भूल गया अपना वर्चस्व ,
भुला दी तूने ,
मनुस्मृति की लक्ष्मण रेखाएं ।
संविधान को कवच बनाकर
तू उत्छृंलन हो गया है।
पैरों के दासी ,
अपने पैरों में खड़ा होने की,
कोशिश मत कर ।
हिम्मत है तो, द्वंद कर ।
आरक्षण का बाना हटा
मुझसे शास्त्रार्थ कर ।’

व्यंग्य की बाणों से ,
जख्मी ने प्रत्युत्तर दिया-
” वाह रे कुलश्रेष्ठ !
तू बोलता है कि
मैं ब्रह्मा के मुख से पैदा हुआ हूं ।
तेरे मुख से ये कुटिल बातें ,
शोभा नहीं देती ।
तूने कहा ,जातियां जन्मजात हैं
हमने मान लिया ।
फिर कहा ,
प्रत्येक जाति के कर्म विधान हैं ।
हमने स्वीकार लिया ।
सौभाग्य माना हमने,
जन सेवा करके ।
नव निर्माण करके
जग का श्रृंगार किया ।
अति प्राचीन
भारतीय संस्कृति को आधार दिया ।
सामाजिक नियमों में बांधकर
तूने जी भर शोषण किया ।
धर्म और ईश्वर के नाम पर
भयभीत किया ।
पर अपने लिए नियम
लचीला रखा,
जब अपनी स्वार्थ पूरी करनी थी।
हमने जब सीमाएं तोड़ी ,
तो नर्क का दंड विधान किया ।
वो तो खुश किस्मत हुए
कि संविधान का रास्ता दिखा ।
हमारे विकास के लिए
एक अवसर दिखा।
आज तुम्हें इस बात का कष्ट है-
कि हमने शिक्षामृत चखा ।
वर्षों से छीना गया अधिकार को परखा।

आज तुम्हें तकलीफ है,
क्यों हम सेवा क्षेत्र में आरक्षित हैं ?
तो सुन तेरे शब्दों में,
“शूद्रों के लिए सेवा का क्षेत्र हो ,
यह भी तो तेरी मनुस्मृति की देन है।”
मुझे शौक नहीं कि
आरक्षण के नाम पर
समाज से सहानुभूति मिले ।
जातिगत भेदभाव टूटे ,
समभाव से प्रकृति खिले ।
योग्य का चुनाव हो ,
आरक्षण की दीवार हटा दो ।
परंतु उससे पहले ,
जाति की अवधारणा मिटा दो।
कोई सवर्ण नहीं ,
कोई अवर्ण नहीं ।
सब प्रकृति की है संतान ।
जातियों में बंटकर
अलग ही रहेंगे ,
नहीं बनेगा कभी भी,
अपना भारत महान।

मनीभाई नवरत्न

हिंदी कविता 6 हमें बता दो जानेमन

जब-जब होता है प्रथम मिलन.
चित्त विचलित हो जाता सजन .
ऐसे में करें क्या हम जतन
जरा हमें बता दो जानेमन ।

तन में जोर नहीं ,विक्षिप्त मन।
दिल होता है, असंतुलन।
ऐसे में करें क्या हम जतन
जरा हमें बता दो जानेमन ।

जाओ ना दूर, मेरे सरकार ।
बता ही दो कुछ प्रतिकार ।
सुखमय हो जाए जीवन
दुख दारुन व्यथा करो निवार।

मुझे ले जाओ , अपने शरण।
शनैः शनैःहो जाए,ना मरण।
ऐसे में करें क्या हम जतन
जरा हमें बता दो जानेमन ।

छा जाती है दिन में तंद्रा ।
रात को गायब होती निंद्रा ।
अपलक करें चिंतन
लेकर हम विविध मुद्रा ।

किंचित भी नहीं है भेदावरण।
प्रेम पथ पे बढ़ते चरण।
ऐसे में करें क्या हम जतन
जरा हमें बता दो जानेमन ।

मनीभाई नवरत्न

हिंदी कविता 7 पागल

कल से पागल मानसिक विकार से ।
आज घायल हैं समाज की दुत्कार से।
ऐसी कजरा जिसमें श्वास हैं ।
पागलखाने फुटपाथ ही आवास है ।

जो बसाए रहे घर संसार ।
वही संसार करती है अस्वीकार।
चलते फिरते बने मनोरंजन का साधन।
क्योंकि घृणित है भोजन वसन वासन।

हुजूर  के लिए आनंददायक पागल शब्द ।
असभ्य संज्ञा पाकर भी हम निस्तब्ध।
तेरे लिए जिंदगी में निराशा की भरमार।
हम पर तो जिंदगी ही तनाव का भंडार।

फिर भी समाज के रखवाले
कभी तो हमें भी बुलाओ ।
खोई हुई मान सम्मान मन की शांति दिलाओ ।
हमें भी समाज की प्रगति करना है ।
पर पहल यही कि हमें सभ्य समाज में रहना है।

मनीभाई नवरत्न

हिंदी कविता 8 सीमेंट के जंगल

कौन कहता है?
हमने तोड़ा नाता जंगल से,
क्या हमें पता नहीं कि
जंगल में मंगल होता है ।

बेशक! हमारे स्वभाव से न झलके
अपनी जंगलियत ।
पर कई बार उजागर किये
कर्मों से पशुता की निशानी ।

जंगल का राजा जो भी हो,
पर आज हमारी हुकूमत है।
हमारे रहते किसी हिंसक की
आखिर क्यूँ जरूरत है?

गांव को नजरअंदाज करके
हमने जंगल की सफाई की है।
पानी न दे सके तो क्या?
आग की लपटें तो दी है?
पेड़ न रोप सके तो क्या?
हमने जंगल में दिल लगाया है।

शिला तोड़-तोड़ के
एक नया जंगल सजाया है।
जहाँ ऊँची-ऊँची इमारतें है ।
धरा की झुर्रियों सी सड़कें
दीमक-सी लगती विशाल जन सैलाब
उर्वरा भू को बंध्य बनाती “सीमेंट के जंगल” ।

मनीभाई नवरत्न

हिंदी कविता 9 हर चीज जुड़ी विज्ञान से

देखोगे जब तुम ध्यान से
पाओगे हर चीज जुड़ी विज्ञान से ।
पहले तो लगता है अनजान से
पर आया सब तो पहचान से ।

यह शाखा पत्ते फूल
यह मिट्टी पत्थर धूल।
सब का एक ही मूल
जो बना इलेक्ट्रान प्रोटान से।।  

यह आंख कान नाक
यह मन दिल दिमाग ।
सब तो शरीर के ही भाग ।
जो जुड़ी है प्राण से ।।  

यह सूरज चांद सितारे
यह नदियां सागर किनारे ।
सब है प्रकृति के सहारे ।
जिसका संबंध है ब्रह्मांड से।।

मनीभाई नवरत्न

हिंदी कविता 10 गुमनाम है क्यों प्रतिभाएं ?

गुमनाम है क्यों प्रतिभाएं ?
क्या उन्हें अवसर की तलाश है ?
या फिर दाने दाने को मोहताज हैं ?
क्या बड़ा है उनके लिए?
सपना या भूख ।
बेशक भूख!
क्योंकि भूख मिटने से नींद अच्छी आती है
और अच्छी नींद में अच्छे सपने आते हैं।

मनीभाई नवरत्न

जनता राजा-मनीभाई नवरत्न

(1)
लोकतंत्र क्या है?
स्वतंत्रता का पर्याय ।
जहाँ होती है जनता राजा,
और चलती है
उसके बनाये गये कानून ।
लोकतंत्र में,
मंत्री होते हैं सेवक ।
चुने जाते हैं राजा से
हर पाँच साल में।
पर सेवा तो ,
निस्वार्थ भावना है।
फिर क्यों होती है लड़ाई?
इन सेवकों ने,
बना दिया है चुनाव को
महाभारत का कुरूक्षेत्र।
🖋_मनीभाई नवरत्न_

(2)
“राजा के सेवक हजार”
जो खाते हैं मेवा,
और रखते हैं जेब में सेवा।
उसे दिखाते हैं तभी
जब लेते हैं सेल्फी।
जो दिखता है दीवार पर
टीवी में, अखबार पर।
मीडियाकर्मी फेंके
जबरदस्त आर्कषण।
राजा को होता है
जिससे साक्षात् दर्शन।
ये तो वही देखता है ,
सुनता है, समझता है।
जो मंत्री चाहता है।
राजा में नहीं है
संजय सा दूरदृष्टि
वो तो धृतराष्ट्र है ।
🖋_मनीभाई नवरत्न_

(3)
राजा बड़ा रूखा है
लगता है कई दिनों से भूखा है।
और भूखे को सदा ,
पेट का सूझता है
वो जरा मान-सम्मान को,
कम बूझता है।
काम की तलाश में
सौ कोस दूर चलता है।
अधूरे सपने साथ ले,
चार आने पर बहलता है ।
अपने घर में
राज करने के बजाय
दासता झेल रहे बाहर ।
आज रास्ते बने हैं
इनके आसरे ।
जहाँ काटते अपना सफर।
🖋_मनीभाई नवरत्न_

तांत्रिक पर कविता

तांत्रिक साधक है, या विकास में बाधक है ।
इस पर चर्चा-परिचर्चा, होती बड़ी मादक है।

जब विज्ञान कुछ दुर जाके,असर खोती है।
समझ लो तंत्र-मंत्र जादू-टोना शुरू होती है ।

यह पूजा या खेल, या कड़ी है विज्ञान की।
बहुरंगी,विक्षप्त ने देखो, स्वयं को महान की।

कुछ भी लिख दे, हम बिना प्रमाण के।
यह स्वभाव नहीं ,कवि और विज्ञान के ।

यह समझ बन, मैं लिखने से कतराता हूँ ।
आध्यात्मिकता से परे,भौतिकता में पाता हूँ ।

गुलामी की कफन

गुलामी की कफन जला के , सजाया है गुलिस्तान।

महकता रहे गुल सा , अपना प्यारा हिंदुस्तान ।।
आज फिर दस्तक दे ना कयामत की वो घड़ियां
आगाह करती है, मेरी गीत की दास्तान ।।

हम क्या थे ,क्या हो चले ।
शूरवीरों की शहादत से बनी वजूद खो चले ।
आज के दिन का मिलना नहीं था आसान।
अपने ही घर में रह गये थे बन कर मेहमान।
धीमा-धीमा सुलगा अपना स्वाभिमान।
जब भगत राजगुरु सुखदेव ने दी
फांसी में झूल की अपनी जान ।
आज फुल को खिलाने के बजाय
कांटे के बीज बो चले ।
शूरवीरों की शहादत से बनी वजूद खो चले।

कुछ भटक गए हैं इंसानियत से
फैला रहे आतंक का साया।
मजहब का नाम देकर ,
डरा-धमकाकर जन्नत को श्मशान बनाया ।
फिर से चलनी होगी उन राहों में
जिन राहों को बापू और बाबा ने दिखाया।
प्रेम की गठरी छोड़के नफरत की बोरी ढो चले ।
शूरवीरों की शहादत से बनी वजूद खो चले।।

राजनीति और भ्रष्टाचार

राजनीति और भ्रष्टाचार
पहिये हैं एक गाड़ी के ।
सेवा है राजनीति देशभक्तों का
खेल है ये अनाड़ी के ।।


सफेद लिबास में मत जाना,
नजरें धोखा खा जायेगी ।
भ्रष्टता की कालिमा तुझे
पीठ पीछे नजर आयेंगी ।
अब नहीं होते राम विक्रमादित्य
चस्का है सबको बंगला गाड़ी के ।।

जहां लड़ा जाये सत्ता पाने को,
वहाँ समाज सेवा कोसों दूर है ।
एक दूजे की टांग खींचे जिसे पाने को
उस कुर्सी में कुछ बात जरूर है।
खींचातानी, चुगली निन्दा
जायज सब पैंतरे, इस खेल में  खिलाड़ी के।।


अनपढ़ अपराधी को समाज दूतकारें ।
पर राजनीति इन्हें सहर्ष स्वीकारें ।
लोकतंत्र की पांव है राजनीति
भ्रष्ट रंग ना चढ़ाओ।
नीतियाँ होती आमजन की ,
जिसको अंतिम पंक्ति ले जाओ।
राजनीति पुष्प है,
भ्रष्टाचार खरपतवार है  बाड़ी के।।

-मनीभाई नवरत्न

काम को काम सिखाता है

काम को काम सिखाता है ।
नाम ही नाम कमाता है ।
आदमी भी मदद अपनी खुद कर जाता है।
अपना काम आप करो हर काम तमाम करो ।
No pain, no gain. Try again.

कांटा को कांटा निकालता है ।
लोहा ही लोहा काटता है।
आदमी खुद के लिए खतरा बन जाता है।
बात को समझा करो खुद में ना उलझा करो
No pain, no gain. Try again.

बात को बात बढ़ाता है।
हाथ ही हाथ मिलाता है ।
आदमी अपनी भीड़ में खो जाता है ।
रास्ता न जाम करो , सब को सलाम करो
No pain, no gain. Try again.

मनीभाई नवरत्न

चलो ऐसा राष्ट्र बनाएं

चलो ऐसा राष्ट्र बनाएं,
जिसकी पहचान,
रंग, वर्ण, जाति से ना हो।
ना हो संप्रदाय, हमारे मूल पहचान में।
बांटें नहीं खुद को
नदी पर्वत के बहाने ।
भाषा, बोली को मानें हम तराने।
चलो ऐसा राष्ट्र बनाएं।
राष्ट्र तो है दीपक
आलोकित होता संपूर्ण विश्व ।
दीये से दीये जुड़ते जाएं
अंधेरा छंट जायें
मन की आंखों से ।
तभी जानेंगे तेरी रोशनी,
मेरी रोशनी से फर्क नहीं ।
आगे बढ़ें एक लक्ष्य लेके
हम मानस पुत्र
भक्षक नहीं रक्षक हैं
अखिल ब्रम्हांड का
जो हम सबका परिवार है।

मनीभाई नवरत्न

manibhainavratna

manibhai navratna

जब जिंदगी की हो जाएगी छुट्टी

जब जिंदगी की हो जाएगी छुट्टी ।

तब तू नहीं मैं नहीं रह जाएगी मिट्टी।

प्यार की फैली है खुशबू इस जहां में ।
कल बदल जाएगी क्या रखा है इस समां में ।
जाना होगा तुझे सब छोड़कर
भेज दे वह जब बुलावे की चिट्ठी ।

अपने करीब के माहौल को फिर से सजा लो।
कल क्या होगा किसने जाना आओ मजा लो ।
ढूंढे है तूने सुख चैन क्या वे मिलेंगे तुझे कभी।
जिंदगी की जब हो जाएगी छुट्टी

🖋मनीभाई नवरत्न

यूं तो हर किसी का होता है एक परिवार

यूं तो हर किसी का होता है एक परिवार ।
पर मेरा परिवार बना है यह सारा संसार ।

कभी उलझी हुई, कभी सुलझी हुई ।
चारों ओर बिछी हुई, लोगों के प्यार ने हमको पाला।


यह जीवन मकड़ी का जाला,
सिरा जिसका हमें ना मिला ।।

कभी खिलती हुई कभी सिमटती  हुई,
खुशबू से महकती हुई, धरती मां ने मुझमे जान डाला।
यह जीवन फूलों की माला,
सिरा जिसका हमें ना मिला ।।

कभी सुलगती हुई, कभी बुझती हुई,
खुशियों से चहकती हुई, दोस्तों का बोलबाला।
यह जीवन ग़मों का निवाला ,
सिरा जिसका हमें ना मिला ।।

यह जीवन मुझे लावारिस का ,
यह जीवन मेरे आंखों की बारिश का।
यह जीवन मेरी गुजारिश का ,
सिरा जिसका हमें ना मिला।।

-मनीभाई नवरत्न

स्काउट जम्बुरी गीत

सबसे अपना गहरा नाता है ,
सबसे अपनी है प्रीति।
आओ एक दूजे को मान दें ,
समझे सबकी संस्कृति ।।
स्काउट गाइड सीखाता
अनुशासन का पाठ ,
चलो हिलमिल जायें हम सब
मिटाके आपस की दूरी।।
जम्बूरी….. मिलके रहना सीखायेंं…
जम्बुरी…..सेवा भाव जगायें…..
जम्बुरी….. हम सबके लिए यादगार बनें
आज प्रकृति रक्षा के लिए , है जरूरी….

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