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पोस्टर ब्वाय लगते हैं -अनिल कुमार वर्मा

पोस्टर ब्वाय लगते हैं -अनिल कुमार वर्मा

कविता संग्रह
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बैनर छाप लोग नेता नहीं, पोस्टर ब्वाय लगते हैं -अनिल कुमार वर्मा


जब से प्लास्टिक फ्लेक्स का चलन हुआ है तब से इसका उपयोग बहुत ज्यादा हो गया है। जन्मदिन, उत्सव, त्यौहार, स्वागत और नववर्ष की बधाई के बहाने आज तथाकथित नेता अपने बड़े बड़े फोटो लगे हुए बैनर लगवा रहे हैं। इस तरह के फ्लेक्स प्लास्टिक से तैयार हो रहे है। इसमें इस्तेमाल होने वाले रंग पर्यावरण के लिए हानिकारक होते है। ये बैनर की उम्र बहुत छोटी होती है। ये कचरे बनकर गंदगी का शक्ल ले लेती है। ऐसे फ्लेक्स पंद्रह से बीस रुपये फिट में मशीनों से बनाए जाते है। फ्लेक्स कुछ मिनटों, कुछ घंटों या कुछ दिनों के लिए ही लगाए जाते है, जो पैसों की बर्बादी है।

लखि सुवेष जग बंचक जेऊ, वेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ।।
उघरहिं अंत न होइ निबाहू, कालनेमि जिमी रावन राहू।।


पर आजकल के युवाओं में पोस्टर ब्वाय बनने का शौक चढ़ा है। ज्यादातर ये वे लोग होते हैं, जिन्हें न समाज सेवा से मतलब है, न धर्म कर्म से और न ही इन लोगों ने कोई ऐसा काम किया है जिससे देशवासियों को गर्व हो। ये ऐसे लोग हैं, जो सामने भेंट हो जाने पर बड़े बुजूर्गों को शिष्टाचार भी नहीं करते। अपनी उम्र के लोगों से ये रे, बे, के साथ अभिवादन करते हैं। हाँ फ्लेक्स में बधाई के ऐसे शब्द लिखाते है, जैसे इनसे महान शिष्टचारी कोई नहीं है। सामान्य जीवन में लोगों के हाथ तोड़ने वाले चेहरे भी फ्लेक्स में हाथ जोड़े हुए दिखाई देते है। काम तो काम जिनकी शक्ल भी अशोभनीय है, उनकी तस्वीरे फ्लेक्स में इतने आकर्षक दिखाई पड़ते है कि लगता है, ये फिल्मी सितारे है।

धार्मिक फ्लेक्स में लोगों की फोटो देखकर लगता है कि, यही सबसे बड़े भक्त हैं। गणेशोत्सव, दुर्गोत्सव आदि में पंडाल से भी ज्यादा बड़े बड़े फ्लेक्स लगाए जाते है। ये बैनर छाप लोग सोचते होंगे कि फ्लेक्स में फोटो सजाकर वे नेता बन गए। समाज सेवक बन गए। हीरो बन गए। मगर सच यह है कि कोई फ्लेक्स बनवा लेने से नेता नहीं हो जाता। नेता वह होता है, जो स्वार्थ के लिए नहीं लोक कल्याण के लिए सतत काम करते है, जो जनहित में अन्याय के खिलाफ आगे आए। जो सबको साथ लेकर चले। जो फिजुलखर्ची न हो। जो सादगी पसंद हो। जो आडंबरहीन हो। जो प्लास्टिक की बैनर में नहीं जनता की दिलो राज करते हो, वहीं नेता है।


आज के राजनीतिक कार्यक्रमों में कार्यक्रम स्थल पर चापलूस किस्म के लोग इतने अधिक फ्लेक्स लगा देते हैं कि, मंच में विराजित अभ्यागतों को फ्लेक्स के अलावा कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता । सांसद, मंत्री, विधायक के रोड सो में सड़क के दोनों किनारे, चौक चौराहों में फ्लेक्स का पहाड़ खड़ा कर दिया जाता है। जैसे घोड़े की आँखों में पट्टा लगा दिया जाता है, वह सीधा ही देख पाता है। ठीक वैसा ही फ्लेक्स के परदे नेताओं की आँखों को ढँक लेते है। ताकि मंच से नेता सिर्फ अपने चमचो को देख सके। कई बार फ्लेक्स लगाने के लिए जगह के नाम पर विवाद हो जाता है। ऐसे ही नेताओं के स्वागत के लिए, पोस्टरब्वाय बड़े ललाईत होते है। मंच में नेता के आसपास खड़े होने के लिए ऐसे लोग भारी मशक्कत करते है। अगर इन लोगों के साथ नेता जी ने सेल्फी खिंचा लिया, तो चापलूस लोग ऐसा महसूस करते हैं, मानो उन्हें अश्वमेध यज्ञ का पुण्य प्राप्त हो गया।


आजकल की सरकारे भी कई योजनाओं के प्रचार प्रसार में अपनी तस्वीरे लगवा रहे है। ऐसा लगता है कि ये नेता अपने घर के पैसों से फ्लेक्स और होर्डिंग लगवा रहे है। ये ऐसा कुछ जताना चाहते हैं मानो ये नहीं होते तो, वे काम ही नहीं होते। आज के नेताओ को पोस्टरगिरी का नशा इतना अधिक हो गया है कि, वे मंदिर और भगवान तक को अपने विज्ञापन का साधन बना रहे हैं। सरकारी पैसे का उपयोग व्यक्तिगत प्रचार के लिए किया जाना देश के पैसों का दुरुपयोग है।


फ्लेक्स का धुंआधार प्रयोग दिखावा, फिजुलखर्ची, पर्यावरण का नुकसान तो है ही, साथ ही इससे उन हुनरमंद चित्रकारों का रोजगार छिन गया, जो पेंटिंग करके अपना जीवनयापन करते थे। पहले कपड़ों में बैनर बनाए जाते थे, जो टिकाउ होते थे। जिसमें हाथों की कला दिखती थी। देखने वाले पूछते थे कि किस पेंटर ने बैनर बनाया है। हाथों से विज्ञापन के बोर्ड भी चित्रकार ही बनाते थे। आज एक आदमी लाखों का प्रिंटर लगाकर सैकड़ों का रोजगार लूट लेता है। कलाकारों को हाथों का काम नहीं मिलने से कला भी उनसे दूर हो रही है। फ्लेक्स के इस तरह से फिजुल उपयोग पर रोक लगनी चाहिए। साथ ही सार्वजनिक कार्यक्रमों में अनावश्यक फ्लेक्स पर पाबंदी हो। अगर इंसान के परिश्रम, व्यवहार, संबंध अच्छे होंगे तो उन्हें फ्लेक्स बैनर छपवाने की कतई आवश्यकता नहीं है।
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अनिल कुमार वर्मा
सेमरताल

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