NATURE

प्रकृति से खिलवाड़ पर्यावरण असंतुलन- विभा श्रीवास्तव

प्रकृति से खिलवाड़ पर्यावरण असंतुलन

प्रकृति से खिलवाड़ पर्यावरण असंतुलन- विभा श्रीवास्तव

किलकारियाँ, खिलखिलाहट, अठखेलियाँ हवा के संग ….
हमे बहुत याद आता है।
बादलो का गर्जना ,बिजलियों का कड़कना ,और इन्द्रधनुष के रंग….
हमे भी डराता और हसाता है।

तितलियों का उड़ना ,
भौरो का गुनगुनाना ,
ये सब …..
तुम्हे भी तो भाता है।
सब कुछ था,है ,पर…..
रहेगा या नही ,ये नही पता…,
बरसो से खड़े रहकर
एक ही जगह पर
क्या – क्या नही करते,तुम्हारे लिए …

फिर क्यूँ काट देते हो हमे ….
क्या नही सताता प्रकृति का भय तुम्हे ….
हमारा कराना भले ही तुम तक न पहुँचता हो ….
पर पहुँचते है हमारे ऑसू
जब बाढ़ बन जाता है
क्योंकि हमी तो है जो मिट्टी को
जड़ो से थाम कर रखते है …..,
हमारी अनुपस्थिति मे ….
सूरज की किरणे तुम्हे जलाता है
स्वार्थ का असीम पराकाष्ठा ‘मनुष्य’ …
उसी को रौंद देता है …
जो छाया बन जाता है ।
उखड़ी हमारी सांसे……
तुम भी जीवित न रह पाओगे,
तरस गये पानी के लिए,
ऐसे ही सांसो के लिए हाथ फैलाओगे।

परमात्मा ने प्रकृति के रूप मे ,
जो धन दौलत तुम्हे दिया है
सोने ,चांदी ,कागज के टुकडो से ,
न कभी इसे खरीद पाओगे…..।
जी लो खुद ….
हमे भी जीने दो ,
हम न रहेंगे,तो जीवन
किससे मांगोगे ?
जानते हो हम कौन है ?
हाँ….हम “पेड़” हैं
जो सिर्फ जीवन देना जानते है
हर रूप मे …..हर क्षण।
बन्द करो प्रकृति से खिलवाड़ ,
क्योंकी जब प्रकृति खिलवाड़ करती है
असहनीय हो जाता है …..।


लेखिका- विभा श्रीवास्तव

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *