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बाल मजदूरी निषेध पर कविताएँ

बाल मजदूरी निषेध पर कविताएँ: बाल-श्रम का मतलब यह है कि जिसमे कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा से छोटा होता है। इस प्रथा को कई देशों और अंतर्राष्ट्रीय संघठनों ने शोषित करने वाली प्रथा माना है। अतीत में बाल श्रम का कई प्रकार से उपयोग किया जाता था, लेकिन सार्वभौमिक स्कूली शिक्षा के साथ औद्योगीकरण, काम करने की स्थिति में परिवर्तन तथा कामगारों श्रम अधिकार और बच्चों अधिकार की अवधारणाओं के चलते इसमे जनविवाद प्रवेश कर गया। बाल श्रम अभी भी कुछ देशों में आम है।

बाल मजदूरी
बाल मजदूरी पर कविताएँ

बाल मजदूरी पर कविताएँ

कोमल हाथों से चलाता औजार कोई उसको न रोका,
माँ – बाप का उठ गया साया दे गया बचपन धोखा।
तपती सुरज की गर्मी और प्यास से सुखा गला,
दो वक्त की रोटी के लिए बचपन – मजदूरी करने चला।
नन्हें हाथों से आँसू पोंछ करते मालिक की आज्ञा पूरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।

किस्मत के हाथों मजबूर बालक बन गया बाल मजदूर,
खाते गाली अगर हो गई गलती फिर भी इसको नहीं है गुरूर।
सोंचता बाल- मजदूर मैं भी जाऊँ स्कूल काश मैं भी पढ़ता,
बेचारा क्या करे वो अपनी गरीबी हालात से है लड़ता।
गरीब बच्चों के लिए है कंपकपाती सिकुड़न भरी रात,

अमीरों के लिए स्वेटर – हिटर है जरुरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।

कोई खिलौना कोई सिनेमा कोई देखें मेला,
देकर खुद को दिलासा ये कंकड़ियों के साथ है खेला।
चाय – अखबार बेच साफ करता मेज- ग्लास और थाली,
अगर कोई गलती हो जाए तो खाता मालिक से गाली।
काश इसकी हर ख्वाहिश होती अब पुरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।

नहीं मिला कुछ तो भुखा पेट सो गया,
खाली पेट पिकर पानी सिसक सिसक कर रो गया।
करता सेवा मालिक का कहता हर-पल जी हुजूर,
ढांढस बांधले मन में जब भी देखे वो बादाम- किशमिश और खजूर।
कहते ये सो जाता कहाँ है मैय्या मोरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।

बचपन ने दबा दिया इनकी कल्पना,
बाल – मजदूर ने जो देखा था सपना।
आओ दें हम इनका भरपूर साथ,
खुशियों से भर जाए इनका दिन और रात।
हम करेंगे इनकी पुरी ख्वाहिश जो रह गई है अधूरी,
हो रहे इन पर जुल्मों सितम के लिए, रोकेंगे हम बाल – मजदूरी।

अकिल खान रायगढ़ जिला – रायगढ़ (छ. ग.) पिन – 496440.

विश्व बाल मजदूरी निषेध दिवस पर कविता

उमर जब खेलने की थी खिलौनों से।
वो सोचने लगा,पेट कैसे भरेगा निबालों से।

भाग्य से किश्मत से, होकर के मजबूर।
अबोध बालक ही, बन जाते हैं मजदूर।

पेट की भूख, इनको मजबूर बनाती।
कड़की ठंड में भी, जीना सिखाती।

उठे जब भाव दर्द, अश्रु ही वो बहाते।
बिन पोछे, स्वयं सूर्यदेव कभी सुखाते।

उमर भी रही कम, जब बनाने थे थाट।
छोड़ गुरुर,सहनी पड़ती मालिक की डांट।

कहीं चाय बेचे, अखबार भी कहीं पर।
जब क्षीण हो शक्ति, रो बैठे जमीं पर।

मृदुल हाथों से वह हथियार चलाता।
मात पितु का जब साया उठ जाता।

कथनी व करनी बाल मजदूरी पर ऐसी।
समाज में लगती सेमल फूल जैसी।

निरर्थक हो जाती हैं बाल योजनाएं।
जब नन्हा दुलारा मजदूरी कमाए।

माना किश्मत ने किया है,उसके साथ धोखा।
मगर सभ्य समाज ने, उसे क्यूँ नहीं रोका।

दे देता कलम और, किताब उसके हाथों में।
किश्मत बदल सकती, उसकी जज्बातों में।

आओ इनकी बेवशी को, खुशियों से झोंक दें।
चलों यारों अब तो, बाल मजदूरी को रोक दें।

अशोक शर्मा, लक्ष्मीगंज, कुशीनगर,उ.प्र.

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