साजन पर कविता

मंद हवा तरु पात हिले,
नचि लागत फागुन में सजनी।
लाल महावर हाथ हिना,
पद पायल साजत है बजनी।
आय समीर बजे पतरा,
झट पाँव बढ़े सजनी धरनी।
बात कहूँ सजनी सपने,
नित आवत साजन हैं रजनी।


फूल खिले भँवरा भ्रमरे,
तब आय बसे सजना चित में।
तीतर मोर पपीह सबै,
जब बोलत बोल पिया हित में।
फागुन आवन की कहते,
पिव बाट निहार रही नित में।
प्रीत सुरीति निभाइ नहीं,
विरहा तन चैन परे कित में।
.


भंग चढ़े बज चंग रही,
. मन शूल उठे मचलावन को।
होलि मचे हुलियार बढ़े,
. तन रंग गुलाल लगावन को।
नैन भरे जल बूँद ढरे,
. पिक कूँजत प्रान जलावन को।
आय मिलो अब मोहि पिया,
. मन बाँट निहारत आवन को।


प्राण तजूँ परिवार तजूँ,
. सब मान तजूँ हिय हारत हूँ।
प्रीत करी फिर रीत घटी,
. मन प्राण पिया अब आरत हूँ।
आन मिलो सजना नत मैं,
. विरहातप काय पजारत हूँ।
मीत मिले अगले जनमों,
. बस प्रीतम प्रीत सँभारत हूँ।
. ???

✍?©
बाबू लाल शर्मा “बौहरा”
सिकंदरा, दौसा,राजस्थान
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