Tag: गरीबी उन्मूलन दिवस पर कविता

  • दरिद्र कौन / पद्ममुख पंडा

    दरिद्र कौन / पद्ममुख पंडा

    “दरिद्र कौन” कविता, कवि पद्ममुख पंडा द्वारा रचित है। यह कविता उन लोगों पर आधारित है जो वास्तविक दरिद्रता (गरीबी) और स्वाभिमान को पहचानते हैं। इसमें कवि यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि दरिद्रता केवल धन की कमी नहीं होती, बल्कि नैतिक मूल्यों, दया और संवेदना की कमी भी दरिद्रता का रूप होती है।

    कविता में, कवि ने कई सवालों के माध्यम से यह पूछने का प्रयास किया है कि सच्चा दरिद्र कौन है – वह जो धन से दरिद्र है या वह जो नैतिकता, प्रेम, और मानवता से दरिद्र है।

    दरिद्र कौन?


    (तीन साल पहले रचित मेरी इन पंक्तियों पर अपनी प्रतिक्रिया दें तो मुझे बहुत खुशी होगी।)

    सड़क किनारे /पेड़ के नीचे ,
    चिथड़े बिछाकर ,
    आसमान की ओर ,ताकते हैं !
    घूम घूमकर ,भीख मांग कर ,
    खाते पीते, जमीन पर, सो जाते हैं !
    जवान बेटियाँ ,सिहर उठती हैं ,
    कोई, सीटी बजाकर, गुजर जाता है !

    सामने, खड़ी अट्टालिकाएं ,
    कर रही हैं ,अट्टहास !
    गरीबी का, उड़ा कर मजाक !
    अकड़ कर, खड़ी हैं ,
    धनकुबेरों पर ,मेहरबान ,
    निष्ठुर बड़ी हैं ,
    छोटे छोटे बच्चे ,
    भूख से ,बिलबिला रहे हैं !
    जिन्हें ,उनके, मां बाप ,
    मांग कर, लाई गई ,
    सूखी, बासी रोटियां ,खिला रहे हैं !

    जिंदगी, गुजर रही है ,
    रोज ,कुछ ,इसी तरह ,
    सड़क किनारे, खुली जगह ,
    ये भी, देखते हैं, भविष्य का सपना !
    धरती की, गोद में ,सोते हैं ,
    आसमान की ओर ,ताकते हैं !
    सूरज को, देखकर ,खुश होते हैं !
    सोचते हैं ,पूरा संसार है ,अपना ?
    और, यह, हमारे लिए ही, है बना !

    देश में ,कोई भी ,सरकार हो ,
    कोई फर्क, नहीं पड़ता !
    हमारी गरीबी, हमसे ,न हो, कभी जुदा !
    जिसे ,कोई ,हमसे ,छीन नहीं सकता !
    कोई धनकुबेर, कोई सरकार ,
    कोई भगवान, या ,कोई खुदा !!

    पद्ममुख पंडा
    पद्मीरा सदन महापल्ली,
    ग्राम महा पल्ली जिला रायगढ़ छत्तीसगढ़

  • गरीबी उन्मूलन दिवस पर कविता (17 अक्टूबर)

    गरीबी उन्मूलन दिवस पर कविता

    गरीबी से संग्राम

    आचार्य मायाराम ‘पतंग’

    चलो साथियों! हम सेवा के काम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    यह न समझना हमें गरीबी थोड़ी दूर हटानी है।

    अपने आँगन से बुहारकर नहीं पराए लानी है।

    एक शहर से नहीं उठाकर दूजे गाँव बसानी है।

    करें इरादा भारतभर से इसकी जड़ें मिटानी हैं।

    ठोस करें हम काम, न केवल नाम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    यह भारी अभिशाप कसकती पीड़ा हृदय दुखाती है।

    दीमक बनकर मानवता को भीतर-भीतर खाती है।

    जिसको लेती पकड़ पीढ़ियों तक भी उसे सताती है।

    इच्छा के अंबार लगाती डगर-डगर तरसाती है।

    आओ इसका मिलकर काम तमाम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    आलस इसका पिता और माता है इसकी बेकारी।

    पालन-पोषण करती इसका सदा अशिक्षा की नारी।

    साकी प्याला और मधुशाला सखी-सहेली लाचारी ।

    चारों मोहरों पर लोहा लेने की कर लो तैयारी।

    बस्ती-बस्ती गली-गली में ऐलान करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम करें।

    हथियारों से नहीं गरीबी, हारेगी औजारों से ।

    नहीं बनेगी बात भाषणों, लेखों या अखबारों से।

    मेहनत ही आधार मिला, कटती मंजिल कब नारों से।

    सारे जोर लगाएँ मिलकर, बस्ती शहर बाजारों से।

    हाथ करोड़ों साथ निरंतर काम करें।

    आज गरीबी से जमकर संग्राम कर।।

    _____________ _

    कुटिया बाट निहार रही है

    आचार्य मायाराम ‘पतंग’


    सेवा पथ के राही हो तुम,

    मंजिल तुम्हें पुकार रही है।

    उठो, देश की पावन माटी,

    साहस को ललकार रही है।

    अभी कोठियों में, बँगलों में,

    कैद पड़ी आजादी सारी।

    गली-मोहल्लों में, गाँवों में,

    छाई है अब तक अँधियारी,

    किस दिन पहुँचेगी उजियारी ।

    कुटिया बाट निहार रही है ।

    सेवा पथ के…

    आज स्वयं दीपक बन जाओ,

    गली-गली तुम रोशन कर दो।

    सेवा है संकल्प तुम्हारा,

    हर बगिया हरियाली कर दो ॥

    जन-जन के मन में रस भर दो.

    जननी तुम्हें दुलार यही है ।

    सेवा पथ के.

    इसी देश के बेटे, अब भी,

    एक जून भूखे सोते हैं।

    तड़प रहे दाने-दाने को,

    सुबह-शाम बच्चे रोते हैं।

    दान नहीं कुछ काम दिलाओ।

    युग की आज पुकार रही है।

    सेवा पथ के….

    रोजी-रोटी पाकर भी कुछ,

    बन जाते अनजान अनाड़ी।

    व्यसनों में जीवन खोते हैं,

    मारें अपने पाँव कुल्हाड़ी।

    सदाचार का पंथ दिखाओ।

    सेवा का आधार यही है।

    सेवा पथ के राही हो तुम,

    मंजिल तुम्हें पुकार रही है।

    उठो, देश की पावन माटी,

    साहस को ललकार रही है।