Tag: 28th जुलाई विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर हिंदी कविता
28th जुलाई विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस
हर साल 28 जुलाई को दुनिया भर में विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस मनाया जाता है। विश्व संरक्षण दिवस हर साल प्राकृतिक संसाधनों का संक्षरण करने के लिए सर्वोत्तम प्रयासों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मनाया जाता है। पृथ्वी हमें सीमित मात्रा में ऐसे चीजों की आपूर्ति करती है, जिन पर हम सभी पूरी तरह निर्भर हैं जैसे पानी, हवा, मिट्टी और पेड़-पौधे।
किलकारियाँ, खिलखिलाहट, अठखेलियाँ हवा के संग …. हमे बहुत याद आता है। बादलो का गर्जना ,बिजलियों का कड़कना ,और इन्द्रधनुष के रंग…. हमे भी डराता और हसाता है।
तितलियों का उड़ना , भौरो का गुनगुनाना , ये सब ….. तुम्हे भी तो भाता है। सब कुछ था,है ,पर….. रहेगा या नही ,ये नही पता…, बरसो से खड़े रहकर एक ही जगह पर क्या – क्या नही करते,तुम्हारे लिए …
फिर क्यूँ काट देते हो हमे …. क्या नही सताता प्रकृति का भय तुम्हे …. हमारा कराना भले ही तुम तक न पहुँचता हो …. पर पहुँचते है हमारे ऑसू जब बाढ़ बन जाता है क्योंकि हमी तो है जो मिट्टी को जड़ो से थाम कर रखते है ….., हमारी अनुपस्थिति मे …. सूरज की किरणे तुम्हे जलाता है स्वार्थ का असीम पराकाष्ठा ‘मनुष्य’ … उसी को रौंद देता है … जो छाया बन जाता है । उखड़ी हमारी सांसे…… तुम भी जीवित न रह पाओगे, तरस गये पानी के लिए, ऐसे ही सांसो के लिए हाथ फैलाओगे।
परमात्मा ने प्रकृति के रूप मे , जो धन दौलत तुम्हे दिया है सोने ,चांदी ,कागज के टुकडो से , न कभी इसे खरीद पाओगे…..। जी लो खुद …. हमे भी जीने दो , हम न रहेंगे,तो जीवन किससे मांगोगे ? जानते हो हम कौन है ? हाँ….हम “पेड़” हैं जो सिर्फ जीवन देना जानते है हर रूप मे …..हर क्षण। बन्द करो प्रकृति से खिलवाड़ , क्योंकी जब प्रकृति खिलवाड़ करती है असहनीय हो जाता है …..।
हे मनुज! तेरी दानव प्रवृत्ति ने खिलवाड़ धरा से बार बार किया। फिर भी शांत रही अवनि हर संभव तेरा उपकार किया। तेरी लालसा बढ़ती गई जो वक्त आने पर उत्तर देगी। मत छेड़ो सोई धरती को प्रचंड रूप धर लेगी।।
इसने चीर अपना दामन तुम्हें अन्न धन का भंडार दिया। सुर असुरों को पालने वाली बराबर सबको ममता, प्यार दिया। कोख में रखती हर अंकुर को स्नेह आंचल में भर लेती। मत जला पावन आंचल प्रचंड रूप धर लेगी।।
घन इसकी केश-लटाएं अम्बर चुनरी सी फैले। दरख़्त रूपी हाथ काटकर कर लिए तुने जीवन मैले। इसका क्रोध भूकंप,जवाला है जब चाहे उभर लेगी। महामारी, सूखे, बाढ़ से, प्रचंड रूप धर लेगी।।
जो वरदान मिले हैं मां से स्वीकार कर सम्मोहन कर ले। जितनी जरूरत उतना ही ले उचित संसाधन दोहन कर ले। बसा बसेरा जीव, पक्षियों का.. मां है माफ कर देगी। चलना उंगली पकड़ धरा की वरना प्रचंड रूप धर लेगी।।
रोहताश वर्मा ” मुसाफिर “
पता – 07 धानक बस्ती खरसंडी, नोहर हनुमानगढ़ (राजस्थान)335523
कायनात में शक्ति परीक्षा,दिव्य अस्त्र-शस्त्र परमाणु बम से | सारी शक्तियां संज्ञा-शून्य हुई ,प्रकृति प्रदत विषाणु के भ्रम से | अटल, अविचल, जीवनदायिनी ,वसुधा का सीना चीर दिया |! दोहन किया युगो- युगो तक,प्रकृति को अक्षम्य पीर दिया || सभ्य,सुसंस्कृत बन विश्व पटल पर,कर रहे नित हास-परिहास |
त्राहिनाद गूंज रहा चहुं ओर ,अब प्रकृति कर रही अट्टाहास || सृष्टि के झंझावत में बहकर ,क्षितिज ने प्राचीर मान लिया | पारावर की लहरो ने भी,आज अलौकिक विप्लव गान किया |
ध्वनि,धूल,धुंआ,धूसर मुक्त धरा,तामसी पर्यावरण दे रहा उपहार | अमिय बरसा रही प्रकृति,दानव सीख रहे सौम्य शील व्यवहार|
नगपति,कान्तार,हिमशिखा ने,खग, मृग, अहि का मान किया सरसिज खिले,निर्झरिणी मचली,रत्नगर्भा ने अभयदान दिया | द्रुमदल के ललाट शिखर पर,मराल, कलापी, कोयल कूंजे | सरिता का पावन निर्मल जल,क्षणप्रभा की चमक से गूंजे ||
नाम -मोहम्मद अलीम विकास खण्ड -बसना जिला -महासमुन्द राज्य -छत्तीसगढ़
प्रकृति है जीवन का उपहार, इसे हम कब संभालेंगे। धरा की पावन आसन पर ,
इसे हम कब पौढ़ायेंगे। बचा ले अपने जीवन में ,
स्वास के दाताओं को अब ,
नहीं तो श्वास और उच्छवास को
हम भूल जाएंगे। बेखट कट रहे हैं पेड़,
हमारी ही इच्छाओं से ,
उजड़े बाग उपवन वन ,
हमारी दुर्बलताओं से। है निर्बल तन ,व्यथित है मन,
परंतु जान न पाते हैं। संभलना हम सभी को है ,
स्वयं ही भूल जाते है। दूर हो जाती हिमनदियां ,
अपनी हिम सीमाओं से ,
जैसे भाग रही है वो अपनी ही विपदाओं से। छिद्र ओजोन का, तुम को बताता है संभलना है । नहीं तो राख हो जाएंगे अपने ही कर्मफल से । प्रकृति से ना करो खिलवाड़, वरना रूठ जाएगी। जगत में पर्यावरण का, संतुलन कर ना पाएगी। बनाना और मिटाना दोनों मानव के ही हाथों में अगर तैयार है मानव, प्रकृति भी उसे दुलारे गी।
” बिगड़ते पर्यावरणीय संतुलन और मौसम चक्र में बदलाव के कारण पेड़-पौधों की अनेक प्रजातियों के अलावा जीव-जंतुओं के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पर्यावरण के तेजी से बदलते दौर में हमें भली-भांति जान लेना चाहिए कि इनके लुप्त होने का सीधा असर समस्त मानव सभ्यता पर पड़ना अवश्यंभावी है। विश्वभर में आधुनिकीकरण और औद्योगिकीकरण के चलते प्रकृति के साथ बड़े पैमाने पर जो खिलवाड़ हो रहा है, उसके मद्देनजर आमजन को जागरूक करने के लिहाज से ठोस कदम उठाने की दरकार है। हमें यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं करना चाहिए कि इस तरह की समस्याओं के लिए कहीं न कहीं जिम्मेदार हम स्वयं हैं।
कोरोना काल में लॉकडाउन के दौर ने पूरी दुनिया को यह समझने का बेहतरीन अवसर दिया था कि इंसानी गतिविधियों के कारण ही प्रकृति का जिस बड़े पैमाने पर दोहन किया जाता रहा है, उसी की वजह धरती कराहती रही है। प्रकृति मनुष्य को बार-बार बड़ी आपदा के रूप में चेतावनियां भी देती रही है लेकिन उन चेतावनियों को दरकिनार किया जाता रहा है। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का ही नतीजा रहा है कि बीते कुछ वर्षों में मौसम चक्र में बदलाव स्पष्ट दिखाई दिया है। वर्ष दर वर्ष जिस प्रकार मौसम के बिगड़ते मिजाज के चलते समय-समय पर तबाही देखने को मिल रही है, हमें समझ लेना चाहिए कि मौसम चक्र के बदलाव के चलते प्रकृति संतुलन पर जो विपरीत प्रभाव पड़ रहा है, उसकी अनदेखी के कितने भयावह परिणाम होंगे।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण पिछले तीन दशकों से जिस प्रकार मौसम चक्र तीव्र गति से बदल रहा है और प्राकृतिक आपदाओं का आकस्मिक सिलसिला तेज हुआ है, उसके बावजूद अगर हम नहीं संभलना चाहते तो इसमें भला प्रकृति का क्या दोष? प्रकृति के तीन प्रमुख तत्व हैं- जल, जंगल और जमीन, जिनके बगैर प्रकृति अधूरी है और यह विडम्बना है कि प्रकृति के इन तीनों ही तत्वों का इस कदर दोहन किया जा रहा है कि प्रकृति का संतुलन डगमगाने लगा है, जिसकी परिणति भयावह प्राकृतिक आपदाओं के रूप में सामने आने लगी है। प्रकृति का संतुलन बनाए रखने के लिए जल, जंगल, वन्य जीव और वनस्पति, इन सभी का संरक्षण अत्यावश्यक है। प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन और प्रकृति से खिलवाड़ का नतीजा है कि पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ने के कारण मनुष्यों के स्वास्थ्य पर तो प्रतिकूल प्रभाव पड़ ही रहा है, जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियां भी लुप्त हो रही हैं।
दुनियाभर में पानी की कमी के गहराते संकट की बात हो या ग्लोबल वार्मिंग के चलते धरती के तपने की अथवा धरती से एक-एक कर वनस्पतियों या जीव-जंतुओं की अनेक प्रजातियों के लुप्त होने की, इस तरह की समस्याओं के लिए केवल सरकारों का मुंह ताकते रहने से ही हमें कुछ हासिल नहीं होगा। प्रकृति संरक्षण के लिए हम सभी को अपने-अपने स्तर पर अपना योगदान देना होगा। प्रकृति के साथ हम बड़े पैमाने पर जो छेड़छाड़ कर रहे हैं, उसी का नतीजा है कि पिछले कुछ समय में भयानक तूफानों, बाढ़, सूखा, भूकम्प जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सिलसिला तेजी से बढ़ा है।
हमारे जो पर्वतीय स्थान कुछ सालों पहले तक शांत और स्वच्छ वातावरण के कारण हर किसी को अपनी ओर आकर्षित किया करते थे, आज वहां भी प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। ठंडे इलाकों के रूप में विख्यात पहाड़ भी अब तपने लगने हैं, वहां भी जल संकट गहराने लगा है। दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में यातायात के साधनों से बढ़ते प्रदूषण, बड़े-बड़े उद्योग स्थापित करने और राजमार्ग बनाने के नाम पर बड़े पैमाने पर वनों के दोहन, सुरंगें बनाने के लिए बेदर्दी से पहाड़ों का सीना चीरे जाने का ही दुष्परिणाम है कि हमारे इन खूबसूरत पहाड़ों की ठंडक भी अब लगातार कम हो रही है। स्थिति इतनी बदतर होती जा रही है कि अब हिमाचल की धर्मशाला, सोलन व शिमला जैसी हसीन वादियों और यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में कटरा जैसे ठंडे माने जाते रहे स्थानों पर भी पंखों, कूलरों के अलावा ए.सी. की जरूरत महसूस की जाने लगी है। पहाड़ों में बढ़ती इसी गर्माहट के चलते हमें अक्सर घने वनों में भयानक आग लगने की खबरें भी सुनने को मिलती रहती है। पहाड़ों की इसी गर्माहट का सीधा असर निचले मैदानी इलाकों पर पड़ता है, जहां का पारा अब वर्ष दर वर्ष बढ़ रहा है।
जब भी कोई बड़ी प्राकृतिक आपदा सामने आती है तो हम प्रकृति को कोसना शुरू कर देते हैं लेकिन हम नहीं समझना चाहते कि प्रकृति तो रह-रहकर अपना रौद्र रूप दिखाकर हमें सचेत करने का प्रयास करती रही है। दोषी हम खुद हैं। हमारी ही करतूतों के चलते वायुमंडल में कार्बन मोनोक्साइड, नाइट्रोजन, ओजोन और पार्टिक्यूलेट मैटर के प्रदूषण का मिश्रण इतना बढ़ गया है कि हमें वातावरण में इन्हीं प्रदूषित तत्वों की मौजूदगी के कारण सांस की बीमारियों के साथ-साथ टीबी, कैंसर जैसी कई और असाध्य बीमारियां जकड़ने लगी हैं।
सीवरेज की गंदगी स्वच्छ जल स्रोतों में छोड़ने की बात हो या औद्योगिक इकाईयों का अम्लीय कचरा नदियों में बहाने की अथवा सड़कों पर रेंगती वाहनों की लंबी-लंबी कतारों से वायुमंडल में घुलते जहर की या फिर सख्त अदालती निर्देशों के बावजूद खेतों में जलती पराली से हवा में घुलते हजारों-लाखों टन धुएं की, हमारी आंखें तबतक नहीं खुलती, जबतक प्रकृति का बड़ा कहर हम पर नहीं टूट पड़ता। अधिकांश राज्यों में सीवेज ट्रीटमेंट और कचरा प्रबंधन की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है। पैट्रोल, डीजल से उत्पन्न होने वाला धुआं वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड तथा ग्रीन हाउस गैसों की मात्रा को खतरनाक स्तर तक पहुंचाता रहा है। पेड़-पौधे कार्बन डाईऑक्साइड को अवशोषित कर पर्यावरण संतुलन बनाने में अहम भूमिका निभाते रहे हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों में वन-क्षेत्रों को बड़े पैमाने पर कंक्रीट के जंगलों में तब्दील कर दिया गया है।
पर्यावरणीय असंतुलन के बढ़ते खतरों के मद्देनजर हमें स्वयं सोचना होगा कि हम अपने स्तर पर प्रकृति संरक्षण के लिए क्या योगदान दे सकते हैं। सरकार और अदालतों द्वारा पर्यावरण के लिए गंभीर खतरा बनती पॉलीथीन पर पाबंदी लगाने के लिए समय-समय पर कदम उठाए गए लेकिन हम पॉलीथीन का इस्तेमाल करने के इस हद तक आदी हो गए हैं कि हमें आसपास के बाजारों से सामान लाने के लिए भी घर से कपड़े या जूट का थैला साथ लेकर जाने के बजाय पॉलीथीन में सामान लाना ज्यादा सुविधाजनक लगता है। अपनी सुविधा के चलते हम बड़ी सहजता से पॉलीथीन से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान को नजरअंदाज कर देते हैं।
अपनी छोटी-छोटी पहल से हमसब मिलकर प्रकृति संरक्षण के लिए बहुत कुछ कर सकते हैं। हम प्रयास कर सकते हैं कि हमारे दैनिक क्रियाकलापों से हानिकारक कार्बन डाई ऑक्साइड जैसी गैसों का वातावरण में उत्सर्जन कम से कम हो। कोरोना महामारी के इस दौर में पहली बार ऐसा हुआ, जब प्रकृति को स्वयं को संवारने का सुअवसर मिला। अब प्रकृति का संरक्षण करते हुए पृथ्वी को हम कबतक खुशहाल रख पाते हैं, यह सब हमारे ऊपर निर्भर है। कितना अच्छा हो, अगर हम प्रकृति संरक्षण दिवस के अवसर पर प्रकृति संरक्षण में अपनी सक्रिय भागीदारी निभाने का संकल्प लेते हुए अपने स्तर पर उस पर ईमानदारी से अमल भी करें ।