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  • गजानन माधव मुक्तिबोध के लोकप्रिय कविता

    गजानन माधव मुक्तिबोध के लोकप्रिय कविता

    गजानन माधव मुक्तिबोध के लोकप्रिय कविता

    गजानन माधव मुक्तिबोध के लोकप्रिय कविता

    भूल ग़लती / गजानन माधव मुक्तिबोध

    भूल-ग़लती
    आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर
    तख्त पर दिल के,
    चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक,
    आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी,
    खड़ी हैं सिर झुकाए
    सब कतारें
    बेजुबां बेबस सलाम में,

    अनगिनत खम्भों व मेहराबों-थमे
    दरबारे आम में।

    सामने
    बेचैन घावों की अज़ब तिरछी लकीरों से कटा
    चेहरा
    कि जिस पर काँप
    दिल की भाप उठती है…
    पहने हथकड़ी वह एक ऊँचा कद
    समूचे जिस्म पर लत्तर
    झलकते लाल लम्बे दाग
    बहते खून के
    वह क़ैद कर लाया गया ईमान…
    सुलतानी निगाहों में निगाहें डालता,
    बेख़ौफ नीली बिजलियों को फैंकता
    खामोश !!
    सब खामोश

    मनसबदार
    शाइर और सूफ़ी,
    अल गजाली, इब्ने सिन्ना, अलबरूनी
    आलिमो फाजिल सिपहसालार, सब सरदार
    हैं खामोश !!

    नामंजूर
    उसको जिन्दगी की शर्म की सी शर्त
    नामंजूर हठ इनकार का सिर तान..खुद-मुख्तार
    कोई सोचता उस वक्त-
    छाये जा रहे हैं सल्तनत पर घने साये स्याह,
    सुलतानी जिरहबख्तर बना है सिर्फ मिट्टी का,
    वो-रेत का-सा ढेर-शाहंशाह,
    शाही धाक का अब सिर्फ सन्नाटा !!
    (लेकिन, ना
    जमाना साँप का काटा)
    भूल (आलमगीर)
    मेरी आपकी कमजोरियों के स्याह
    लोहे का जिरहबख्तर पहन, खूँखार
    हाँ खूँखार आलीजाह,
    वो आँखें सचाई की निकाले डालता,
    सब बस्तियाँ दिल की उजाड़े डालता
    करता हमे वह घेर
    बेबुनियाद, बेसिर-पैर..
    हम सब क़ैद हैं उसके चमकते तामझाम में
    शाही मुकाम में !!

    इतने में हमीं में से
    अजीब कराह सा कोई निकल भागा
    भरे दरबारे-आम में मैं भी
    सँभल जागा
    कतारों में खड़े खुदगर्ज-बा-हथियार
    बख्तरबंद समझौते
    सहमकर, रह गए,
    दिल में अलग जबड़ा, अलग दाढ़ी लिए,
    दुमुँहेपन के सौ तज़ुर्बों की बुज़ुर्गी से भरे,
    दढ़ियल सिपहसालार संजीदा
    सहमकर रह गये !!

    लेकिन, उधर उस ओर,
    कोई, बुर्ज़ के उस तरफ़ जा पहुँचा,
    अँधेरी घाटियों के गोल टीलों, घने पेड़ों में
    कहीं पर खो गया,
    महसूस होता है कि यह बेनाम
    बेमालूम दर्रों के इलाक़े में
    ( सचाई के सुनहले तेज़ अक्सों के धुँधलके में)
    मुहैया कर रहा लश्कर;
    हमारी हार का बदला चुकाने आयगा
    संकल्प-धर्मा चेतना का रक्तप्लावित स्वर,
    हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर
    प्रकट होकर विकट हो जायगा !!

    ( कविता संग्रह, “चाँद का मुँह टेढ़ा है से” 

    ब्रह्मराक्षस / गजानन माधव मुक्तिबोध

    शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़
    परित्यक्त सूनी बावड़ी
    के भीतरी
    ठण्डे अंधेरे में
    बसी गहराइयाँ जल की…
    सीढ़ियाँ डूबी अनेकों
    उस पुराने घिरे पानी में…
    समझ में आ न सकता हो
    कि जैसे बात का आधार
    लेकिन बात गहरी हो।

    बावड़ी को घेर
    डालें खूब उलझी हैं,
    खड़े हैं मौन औदुम्बर।
    व शाखों पर
    लटकते घुग्घुओं के घोंसले
    परित्यक्त भूरे गोल।
    विद्युत शत पुण्यों का आभास
    जंगली हरी कच्ची गंध में बसकर
    हवा में तैर
    बनता है गहन संदेह
    अनजानी किसी बीती हुई उस श्रेष्ठता का जो कि
    दिल में एक खटके सी लगी रहती।

    बावड़ी की इन मुंडेरों पर
    मनोहर हरी कुहनी टेक
    बैठी है टगर
    ले पुष्प तारे-श्वेत

    उसके पास
    लाल फूलों का लहकता झौंर–
    मेरी वह कन्हेर…
    वह बुलाती एक खतरे की तरफ जिस ओर
    अंधियारा खुला मुँह बावड़ी का
    शून्य अम्बर ताकता है।

    बावड़ी की उन गहराइयों में शून्य
    ब्रह्मराक्षस एक पैठा है,
    व भीतर से उमड़ती गूँज की भी गूँज,
    हड़बड़ाहट शब्द पागल से।
    गहन अनुमानिता
    तन की मलिनता
    दूर करने के लिए प्रतिपल
    पाप छाया दूर करने के लिए, दिन-रात
    स्वच्छ करने–
    ब्रह्मराक्षस
    घिस रहा है देह
    हाथ के पंजे बराबर,
    बाँह-छाती-मुँह छपाछप
    खूब करते साफ़,
    फिर भी मैल
    फिर भी मैल!!

    और… होठों से
    अनोखा स्तोत्र कोई क्रुद्ध मंत्रोच्चार,
    अथवा शुद्ध संस्कृत गालियों का ज्वार,
    मस्तक की लकीरें
    बुन रहीं
    आलोचनाओं के चमकते तार!!
    उस अखण्ड स्नान का पागल प्रवाह….
    प्राण में संवेदना है स्याह!!

    किन्तु, गहरी बावड़ी
    की भीतरी दीवार पर
    तिरछी गिरी रवि-रश्मि
    के उड़ते हुए परमाणु, जब
    तल तक पहुँचते हैं कभी
    तब ब्रह्मराक्षस समझता है, सूर्य ने
    झुककर नमस्ते कर दिया।

    पथ भूलकर जब चांदनी
    की किरन टकराये
    कहीं दीवार पर,
    तब ब्रह्मराक्षस समझता है
    वन्दना की चांदनी ने
    ज्ञान गुरू माना उसे।

    अति प्रफुल्लित कण्टकित तन-मन वही
    करता रहा अनुभव कि नभ ने भी
    विनत हो मान ली है श्रेष्ठता उसकी!!

    और तब दुगुने भयानक ओज से
    पहचान वाला मन
    सुमेरी-बेबिलोनी जन-कथाओं से
    मधुर वैदिक ऋचाओं तक
    व तब से आज तक के सूत्र छन्दस्, मन्त्र, थियोरम,
    सब प्रेमियों तक
    कि मार्क्स, एंजेल्स, रसेल, टॉएन्बी
    कि हीडेग्गर व स्पेंग्लर, सार्त्र, गाँधी भी
    सभी के सिद्ध-अंतों का
    नया व्याख्यान करता वह
    नहाता ब्रह्मराक्षस, श्याम
    प्राक्तन बावड़ी की
    उन घनी गहराईयों में शून्य।

    ……ये गरजती, गूँजती, आन्दोलिता
    गहराईयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः
    उद्भ्रान्त शब्दों के नये आवर्त में
    हर शब्द निज प्रति शब्द को भी काटता,
    वह रूप अपने बिम्ब से भी जूझ
    विकृताकार-कृति
    है बन रहा
    ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहाँ

    बावड़ी की इन मुंडेरों पर
    मनोहर हरी कुहनी टेक सुनते हैं
    टगर के पुष्प-तारे श्वेत
    वे ध्वनियाँ!
    सुनते हैं करोंदों के सुकोमल फूल
    सुनता है उन्हे प्राचीन ओदुम्बर
    सुन रहा हूँ मैं वही
    पागल प्रतीकों में कही जाती हुई
    वह ट्रेजिडी
    जो बावड़ी में अड़ गयी।

    x x x

    खूब ऊँचा एक जीना साँवला
    उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ…
    वे एक आभ्यंतर निराले लोक की।
    एक चढ़ना औ’ उतरना,
    पुनः चढ़ना औ’ लुढ़कना,
    मोच पैरों में
    व छाती पर अनेकों घाव।
    बुरे-अच्छे-बीच का संघर्ष
    वे भी उग्रतर
    अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर
    गहन किंचित सफलता,
    अति भव्य असफलता
    …अतिरेकवादी पूर्णता
    की व्यथाएँ बहुत प्यारी हैं…
    ज्यामितिक संगति-गणित
    की दृष्टि के कृत
    भव्य नैतिक मान
    आत्मचेतन सूक्ष्म नैतिक मान…
    …अतिरेकवादी पूर्णता की तुष्टि करना
    कब रहा आसान
    मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं!!

    रवि निकलता
    लाल चिन्ता की रुधिर-सरिता
    प्रवाहित कर दीवारों पर,
    उदित होता चन्द्र
    व्रण पर बांध देता
    श्वेत-धौली पट्टियाँ
    उद्विग्न भालों पर
    सितारे आसमानी छोर पर फैले हुए
    अनगिन दशमलव से
    दशमलव-बिन्दुओं के सर्वतः
    पसरे हुए उलझे गणित मैदान में
    मारा गया, वह काम आया,
    और वह पसरा पड़ा है…
    वक्ष-बाँहें खुली फैलीं
    एक शोधक की।

    व्यक्तित्व वह कोमल स्फटिक प्रासाद-सा,
    प्रासाद में जीना
    व जीने की अकेली सीढ़ियाँ
    चढ़ना बहुत मुश्किल रहा।
    वे भाव-संगत तर्क-संगत
    कार्य सामंजस्य-योजित
    समीकरणों के गणित की सीढ़ियाँ
    हम छोड़ दें उसके लिए।
    उस भाव तर्क व कार्य-सामंजस्य-योजन-
    शोध में
    सब पण्डितों, सब चिन्तकों के पास
    वह गुरू प्राप्त करने के लिए
    भटका!!

    किन्तु युग बदला व आया कीर्ति-व्यवसायी
    …लाभकारी कार्य में से धन,
    व धन में से हृदय-मन,
    और, धन-अभिभूत अन्तःकरण में से
    सत्य की झाईं
    निरन्तर चिलचिलाती थी।

    आत्मचेतस् किन्तु इस
    व्यक्तित्व में थी प्राणमय अनबन…
    विश्वचेतस् बे-बनाव!!
    महत्ता के चरण में था
    विषादाकुल मन!
    मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि
    तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर
    बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य
    उसकी महत्ता!
    व उस महत्ता का
    हम सरीखों के लिए उपयोग,
    उस आन्तरिकता का बताता मैं महत्व!!

    पिस गया वह भीतरी
    औ’ बाहरी दो कठिन पाटों बीच,
    ऐसी ट्रेजिडी है नीच!!

    बावड़ी में वह स्वयं
    पागल प्रतीकों में निरन्तर कह रहा
    वह कोठरी में किस तरह
    अपना गणित करता रहा
    औ’ मर गया…
    वह सघन झाड़ी के कँटीले
    तम-विवर में
    मरे पक्षी-सा
    विदा ही हो गया
    वह ज्योति अनजानी सदा को सो गयी
    यह क्यों हुआ!
    क्यों यह हुआ!!
    मैं ब्रह्मराक्षस का सजल-उर शिष्य
    होना चाहता
    जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
    उसकी वेदना का स्रोत
    संगत पूर्ण निष्कर्षों तलक
    पहुँचा सकूँ।

    मैं तुम लोगों से दूर हूँ / गजानन माधव मुक्तिबोध

    मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
    तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
    कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।

    मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,
    अकेले में साहचर्य का हाथ है,
    उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
    किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
    इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!
    सबके सामने और अकेले में।
    ( मेरे रक्त-भरे महाकाव्यों के पन्ने उड़ते हैं
    तुम्हारे-हमारे इस सारे झमेले में )

    असफलता का धूल-कचरा ओढ़े हूँ
    इसलिए कि वह चक्करदार ज़ीनों पर मिलती है
    छल-छद्म धन की
    किन्तु मैं सीधी-सादी पटरी-पटरी दौड़ा हूँ
    जीवन की।
    फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
    विष से अप्रसन्न हूँ
    इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए
    पूरी दुनिया साफ़ करन के लिए मेहतर चाहिए
    वह मेहतर मैं हो नहीं पाता
    पर , रोज़ कोई भीतर चिल्लाता है
    कि कोई काम बुरा नहीं
    बशर्ते कि आदमी खरा हो
    फिर भी मैं उस ओर अपने को ढो नहीं पाता।
    रिफ्रिजरेटरों, विटैमिनों, रेडियोग्रेमों के बाहर की
    गतियों की दुनिया में
    मेरी वह भूखी बच्ची मुनिया है शून्यों में
    पेटों की आँतों में न्यूनों की पीड़ा है
    छाती के कोषों में रहितों की व्रीड़ा है

    शून्यों से घिरी हुई पीड़ा ही सत्य है
    शेष सब अवास्तव अयथार्थ मिथ्या है भ्रम है
    सत्य केवल एक जो कि
    दुःखों का क्रम है

    मैं कनफटा हूँ हेठा हूँ
    शेव्रलेट-डॉज के नीचे मैं लेटा हूँ
    तेलिया लिबास में पुरज़े सुधारता हूँ
    तुम्हारी आज्ञाएँ ढोता हूँ।

    नाश देवता / गजानन माधव मुक्तिबोध

    घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा,
    तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा
    हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है
    तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

    तेरे क्रुद्ध वचन बाणों की गति से अंतर में उतरेंगे,
    तेरे क्षुब्ध हृदय के शोले उर की पीड़ा में ठहरेंगे
    कोपुत तेरा अधर-संस्फुरण उर में होगा जीवन-वेदन
    रुष्ट दृगों की चमक बनेगी आत्म-ज्योति की किरण सचेतन ।

    सभी उरों के अंधकार में एक तड़ित वेदना उठेगी,
    तभी सृजन की बीज-वृद्धि हित जड़ावरण की महि फटेगी
    शत-शत बाणों से घायल हो बढ़ा चलेगा जीवन-अंकुर
    दंशन की चेतन किरणों के द्वारा काली अमा हटेगी ।

    हे रहस्यमय, ध्वंस-महाप्रभु, जो जीवन के तेज सनातन,
    तेरे अग्निकणों से जीवन, तीक्ष्ण बाण से नूतन सृजन
    हम घुटने पर, नाश-देवता ! बैठ तुझे करते हैं वंदन
    मेरे सर पर एक पैर रख नाप तीन जग तू असीम बन ।

    दिमाग़ी गुहान्धकार का ओरांग उटांग / गजानन माधव मुक्तिबोध

    स्वप्न के भीतर स्वप्न,
    विचारधारा के भीतर और
    एक अन्य
    सघन विचारधारा प्रच्छन!!
    कथ्य के भीतर एक अनुरोधी
    विरुद्ध विपरीत,
    नेपथ्य संगीत!!
    मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क
    उसके भी अन्दर एक और कक्ष
    कक्ष के भीतर
    एक गुप्त प्रकोष्ठ और

    कोठे के साँवले गुहान्धकार में
    मजबूत…सन्दूक़
    दृढ़, भारी-भरकम
    और उस सन्दूक़ भीतर कोई बन्द है
    यक्ष
    या कि ओरांगउटांग हाय
    अरे! डर यह है…
    न ओरांग…उटांग कहीं छूट जाय,
    कहीं प्रत्यक्ष न यक्ष हो।
    क़रीने से सजे हुए संस्कृत…प्रभामय
    अध्ययन-गृह में
    बहस उठ खड़ी जब होती है–
    विवाद में हिस्सा लेता हुआ मैं
    सुनता हूँ ध्यान से
    अपने ही शब्दों का नाद, प्रवाह और
    पाता हूँ अक्समात्
    स्वयं के स्वर में
    ओरांगउटांग की बौखलाती हुंकृति ध्वनियाँ
    एकाएक भयभीत
    पाता हूँ पसीने से सिंचित
    अपना यह नग्न मन!
    हाय-हाय औऱ न जान ले
    कि नग्न और विद्रूप
    असत्य शक्ति का प्रतिरूप
    प्राकृत औरांग…उटांग यह
    मुझमें छिपा हुआ है।

    स्वयं की ग्रीवा पर
    फेरता हूँ हाथ कि
    करता हूँ महसूस
    एकाएक गरदन पर उगी हुई
    सघन अयाल और
    शब्दों पर उगे हुए बाल तथा
    वाक्यों में ओरांग…उटांग के
    बढ़े हुए नाख़ून!!

    दीखती है सहसा
    अपनी ही गुच्छेदार मूँछ
    जो कि बनती है कविता

    अपने ही बड़े-बड़े दाँत
    जो कि बनते है तर्क और
    दीखता है प्रत्यक्ष
    बौना यह भाल और
    झुका हुआ माथा

    जाता हूँ चौंक मैं निज से
    अपनी ही बालदार सज से
    कपाल की धज से।

    और, मैं विद्रूप वेदना से ग्रस्त हो
    करता हूँ धड़ से बन्द
    वह सन्दूक़
    करता हूँ महसूस
    हाथ में पिस्तौल बन्दूक़!!
    अगर कहीं पेटी वह खुल जाए,
    ओरांगउटांग यदि उसमें से उठ पड़े,
    धाँय धाँय गोली दागी जाएगी।
    रक्ताल…फैला हुआ सब ओर
    ओरांगउटांग का लाल-लाल
    ख़ून, तत्काल…
    ताला लगा देता हूँ में पेटी का
    बन्द है सन्दूक़!!
    अब इस प्रकोष्ठ के बाहस आ
    अनेक कमरों को पार करता हुआ
    संस्कृत प्रभामय अध्ययन-गृह में
    अदृश्य रूप से प्रवेश कर
    चली हुई बहस में भाग ले रहा हूँ!!
    सोचता हूँ–विवाद में ग्रस्त कईं लोग
    कई तल

    सत्य के बहाने
    स्वयं को चाहते है प्रस्थापित करना।
    अहं को, तथ्य के बहाने।
    मेरी जीभ एकाएक ताल से चिपकती
    अक्ल क्षारयुक्त-सी होती है
    और मेरी आँखें उन बहस करनेवालों के
    कपड़ों में छिपी हुई
    सघन रहस्यमय लम्बी पूँछ देखती!!
    और मैं सोचता हूँ…
    कैसे सत्य हैं–
    ढाँक रखना चाहते हैं बड़े-बड़े
    नाख़ून!!

    किसके लिए हैं वे बाघनख!!
    कौन अभागा वह!!

    अंधेरे में / भाग 1 / गजानन माधव मुक्तिबोध

    ज़िन्दगी के…
    कमरों में अँधेरे
    लगाता है चक्कर
    कोई एक लगातार;
    आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
    बार-बार….बार-बार,
    वह नहीं दीखता… नहीं ही दीखता,
    किन्तु वह रहा घूम
    तिलस्मी खोह में ग़िरफ्तार कोई एक,
    भीत-पार आती हुई पास से,
    गहन रहस्यमय अन्धकार ध्वनि-सा
    अस्तित्व जनाता
    अनिवार कोई एक,
    और मेरे हृदय की धक्-धक्
    पूछती है–वह कौन
    सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखाई !
    इतने में अकस्मात गिरते हैं भीतर से
    फूले हुए पलस्तर,
    खिरती है चूने-भरी रेत
    खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह–
    ख़ुद-ब-ख़ुद
    कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
    स्वयमपि
    मुख बन जाता है दिवाल पर,
    नुकीली नाक और
    भव्य ललाट है,
    दृढ़ हनु
    कोई अनजानी अन-पहचानी आकृति।
    कौन वह दिखाई जो देता, पर
    नहीं जाना जाता है !!
    कौन मनु ?

    बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब…
    अँधेरा सब ओर,
    निस्तब्ध जल,
    पर, भीतर से उभरती है सहसा
    सलिल के तम-श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
    कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
    और मुसकाता है,
    पहचान बताता है,
    किन्तु, मैं हतप्रभ,
    नहीं वह समझ में आता।

    अरे ! अरे !!
    तालाब के आस-पास अँधेरे में वन-वृक्ष
    चमक-चमक उठते हैं हरे-हरे अचानक
    वृक्षों के शीशे पर नाच-नाच उठती हैं बिजलियाँ,
    शाखाएँ, डालियाँ झूमकर झपटकर
    चीख़, एक दूसरे पर पटकती हैं सिर कि अकस्मात्–
    वृक्षों के अँधेरे में छिपी हुई किसी एक
    तिलस्मी खोह का शिला-द्वार
    खुलता है धड़ से
    ……………………
    घुसती है लाल-लाल मशाल अजीब-सी
    अन्तराल-विवर के तम में
    लाल-लाल कुहरा,
    कुहरे में, सामने, रक्तालोक-स्नात पुरुष एक,
    रहस्य साक्षात् !!

    तेजो प्रभामय उसका ललाट देख
    मेरे अंग-अंग में अजीब एक थरथर
    गौरवर्ण, दीप्त-दृग, सौम्य-मुख
    सम्भावित स्नेह-सा प्रिय-रूप देखकर
    विलक्षण शंका,
    भव्य आजानुभुज देखते ही साक्षात्
    गहन एक संदेह।

    वह रहस्यमय व्यक्ति
    अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है
    पूर्ण अवस्था वह
    निज-सम्भावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की,
    मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव,
    हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह,
    आत्मा की प्रतिमा।
    प्रश्न थे गम्भीर, शायद ख़तरनाक भी,
    इसी लिए बाहर के गुंजान
    जंगलों से आती हुई हवा ने
    फूँक मार एकाएक मशाल ही बुझा दी-
    कि मुझको यों अँधेरे में पकड़कर
    मौत की सज़ा दी !

    किसी काले डैश की घनी काली पट्टी ही
    आँखों में बँध गयी,
    किसी खड़ी पाई की सूली पर मैं टाँग दिया गया,
    किसी शून्य बिन्दु के अँधियारे खड्डे में
    गिरा दिया गया मैं
    अचेतन स्थिति में !

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  • मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    मुक्तिबोध: एक आत्मसातात्मक प्रयास

    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
    रूचि, संस्कार, आदत सब भिन्न होते हुए भी
    क्यों मुक्तिबोध से दूर हो नहीं पाता…
    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
    क्यों बंजर दिल के खेत में
    आशाओं के बीज बो नहीं पाता…
    जज़्बातों का ज़लज़ला उठने पर भी आखिर क्यों मैं खुलकर रो नहीं पाता…
    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…
    क्यों अपने अंदर व्याप्त ब्रह्मराक्षस के मलिन दागों को धो नहीं पाता…
    मुझे कुरेदती, जर्जर करती स्मृतियों को चाहकर भी खो नहीं पाता…
    क्यों मैं रातों को सो नहीं पाता
    अनसुलझे सवालों का बोझ ढो नहीं पाता…

    अंकित भोई ‘अद्वितीय’
           महासमुंद (छत्तीसगढ़)
    कविता बहार से जुड़ने के लिये धन्यवाद