तदबीर पर कविता – RR Sahu
तदबीर पर कविता रो चुके हालात पे,मुस्कान की तदबीर सोचो,रूह को जकड़ी हुई है कौन सी जंजीर सोचो। मुद्दतें गुजरीं अँधेरों को मुसलसल कोसने में,रौशनी की अब चिरागों में नई तकदीर सोचो। जुल्मतों ने हर कदम पे जंग के अंदाज…
यहाँ पर हिन्दी कवि/ कवयित्री आदर0रेखराम साहू के हिंदी कविताओं का संकलन किया गया है . आप कविता बहार शब्दों का श्रृंगार हिंदी कविताओं का संग्रह में लेखक के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा किये हैं .
तदबीर पर कविता रो चुके हालात पे,मुस्कान की तदबीर सोचो,रूह को जकड़ी हुई है कौन सी जंजीर सोचो। मुद्दतें गुजरीं अँधेरों को मुसलसल कोसने में,रौशनी की अब चिरागों में नई तकदीर सोचो। जुल्मतों ने हर कदम पे जंग के अंदाज…
आर आर साहू के दोहे ईश प्रेम के रूप हैं,ईश सनातन सत्य।अखिल चराचर विश्व ही,उनका लगे अपत्य ।। कवि को कब से सालती,आई है पर पीर।हम निष्ठुर,पाषाण से,फूट पड़ा पर नीर।। क्रूर काल के कृत्य की,क्रीड़ा कठिन कराल।मानव का उच्छ्वास…
कविता का बाजार अब लगता है लग रहा,कविता का बाजार।और कदाचित हो रहा,इसका भी व्यापार।। मानव में गुण-दोष का,स्वाभाविक है धर्म।लिखने-पढ़ने से अधिक,खुलता है यह मर्म।। हमको करना चाहिए,सच का नित सम्मान।दोष बताकर हित करें,परिमार्जित हो ज्ञान।। कोई भी ऐसा…
सूरज पर कविता लो हुआ अवतरित सूरज फिर क्षितिज मुस्का रहा।गीत जीवन का हृदय से विश्व मानो गा रहा।। खोल ली हैं खिड़कियाँ,मन की जिन्होंने जागकर, नव-किरण-उपहार उनके पास स्वर्णिम आ रहा। खिल रहे हैं फूल शुभ,सद्भावना के बाग में,और जिसने…
आत्महंता का अधिकार जहाँ सत्य भाषण से पड़ जाता संकट में जीवन।वहाँ कठिन है कह पाना कवि की कविता का दर्शन।। गुरु सत्ता पे शासन की सत्ता जब होती हावी।वहाँ जीत जाता अधर्म,धर्म की हानि अवश्यंभावी।। जो दरिद्र है,वही द्रोण…
भावभरे दोहे प्रकृति प्रदत्त शरीर में,नर-नारी का द्वैत।प्रेमावस्था में सदा,है अस्तित्व अद्वैत।। पावन व्रत करते नहीं,कभी किसी को बाध्य।व्रत में आराधक वही, और वही आराध्य ।। परम्पराएँ भी वहाँ,हो जाती निष्प्राण।जहाँ कैद बाजार में,हैं रिश्तों के प्राण।। एक हृदय से…
आर आर साहू के दोहे कहाँ ढूँढता बावरे,तू ईश्वर को रोज।करनी पहले चाहिए,तुमको अपनी खोज।। शब्द मात्र संकेत हैं,समझ,सत्य की ओर।सूर्य- चित्र से कब कहाँ,देखा होता भोर।। बस प्रतीक को मानकर,हुई साधना बंद।माया से मिलता रहा,सपने का आनंद।। किसका दर्शन,किसलिए,चला…
ज्योति पर्व नवरात पर दोहे जगमग-जगमग जोत से,ज्योतित है दरबार।धरती से अंबर तलक,मां की जय-जयकार।। मनोकामना साथ ले,खाली झोली हाथ।माँ के दर पे टेकते,कितने याचक माथ।। धन-दौलत संतान सुख,पद-प्रभुता की चाह।माता जी से मांगकर,लौटें अपनी राह।। छप्पन भोगों का चढ़ा…
मानवता की छाती छलनी हुई विमल हास से अधर,नैन वंचित करुणा के जल से।नहीं निकलती पर पीड़ा की नदीहृदय के तल से।। सहमा-सहमा घर-आँगन है, सहमी धरती,भीत गगन है ।लगते हैं अब तो जन-जन क्यों जाने ?हमें विकल से । स्वार्थ शेष है…