तीन ताँका
नेकी की राह
छोड़ते नहीं पेड़
खाये पत्थर
पर देते ही रहे
फल देर सबेर ।
जेब में छेद
पहुँचाता है खेद
सिक्के से ज्यादा
गिरते यहाँ रिश्ते
अचरज ये भेद ।
डूबा सूरज
डूबते वक्त दिखा
रक्तिम नभ
लौट रहे हैं नीड़
अनुशासित खग ।
~ ● ~ □ प्रदीप कुमार दाश “दीपक”