गुजर रहा था मैं ।
कि सहसा देखा एक कतार ।
भारत में ऐसी पहली बार ,
बड़ी अनुशासन से ,
बिना शोर किये,
एक दूजे को इज्जत देते हुये।
मैंने संतोष लिये मन में ,
देखना चाहा उनकी मंजिल।
जहाँ पर लगा था सबका दिल ।
पहले तो सोचा,
बैंक की कतार होगी ।
मगर नोटबंधी का असर
हो चली है बेअसर।
सोचा होगा कोई
नये बाबा का प्रवचन।
पर यहाँ सुनाई नहीं देती
कोई वादन या भजन।
फिर खयाल आया
बाहुबली-दो का रिलीज ,
पर यहाँ तो ना कोई बैनर
ना कोई लाउडस्पीकर ।
कुछ दूर आगे बढ़ा
और पाया अनोखा नजारा
देशी दुकान में शराब की धारा ।
ताज्जुब हुआ कि
अब भीड़ में कोई होश नहीं गंवाता है ।
कतार में रहकर भी कोई
ना चिखता है,चिल्लाता है।
आज अगर इस पर लिखूं
कुछ विरोध के स्वर
तो है मुझे डर।
कि कहीं लोग मुझे
कह ना दें होके मुखर ।
“तेरे कमाई का भला कौन खाता है?
चल हट !तेरे बाप का क्या जाता है?”
(रचनाकार :-मनी भाई भौंरादादर बसना )