आज जी उठा हूं फिर से
कलम से, कलम से।
विचलित भी ये नहीं होती
जैसे ठंडी बर्फ सी।
इसे पिघला दूंगा,
कलम से, कलम से।
संभाले हुए हैं रंग भेद जाति
मानवता भी शर्मशार सी।
इन्हें मानव बनाऊंगा,
कलम से , कलम से।
विस्फोटकों से सरहद का पहरा।
टेढ़ी नजरों से देखें पड़ोसी।
मैं प्रीत जगाऊंगा।
कलम से , कलम से।