क्योंकि काम से अपना नाता है।
काम से नाता होकर भी काम ना मिले मुझको ;
आज मुझ बेरोजगार की यही दास्तां है।
फिर भी जो चाहे ढल गए।
क्यों कयामत की कायदा हो गए ।
शुरू से अंत कदम पर , चित्त सदा लक्ष्य पर ।
अध्ययन के खर्च पर , अटकी दिलासा के दर्द पर।
फिर भी जो चाहे ढल गए।
बैठा हूं आज झुंझलाकर , ना कोई समझ ना खबर।
फिर भी जो चाहे ढल गए।
हम पर भी धन का जुनून छा गई ।
ना कोई जमीन का टुकड़ा है।
जन्मों से वही प्यासी मुखड़ा है।
तपती ख्वाब में राख से हाथ जला गए।
फिर भी जो चाहे ढल गए।
मनीभाई ‘नवरत्न’