वह नूर पहचाना नहीं/ रेखराम साहू
क्या ख़ुदा की बात,अपने आप को जाना नहींं।
साँच है महदूद,मेरी सोच तक माना नहीं ।।
ज़िंदगी हँसकर,रुलाकर मौत यह समझा गईं।
दुश्मनी है ना किसी से और याराना नहीं।।
यह हवस की राह राहत से रही अंजान है।
दौड़ना-चलना मग़र मंज़िल कभी पाना नहीं।।
हाय होती है ग़रीबों की हमेशा आतिशी।
राख़ कर देती जलाकर ज़ुल्मतें ढाना नहीं।।
मज़हबें दम तोड़ देंगी,बात यह पक़्क़ी समझ।
प्यास को पानी नहीं जब पेट को दाना नहीं।।
नूर,नज़रों में नज़ारों में रहीमो राम का।
तंग नज़री ने मग़र वह नूर पहचाना नहीं।।
मालिक़ाना हक़ बना नाहक़ गुलामी का सबब।
सिर्फ़ दौलत आदमी का ठीक पैमाना नहीं।।
तैरती हैं साजिशें अब तो फ़ज़ा में हर तरफ़।
बात बारूदी बहुत है और भड़काना नहीं।।
इस सियाही में फ़सादी बू कहाँ से आ रही!
हर्फ़ इससे जो लिखे हैं,दोस्त! फैलाना नहीं।
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