जिंदगी पर कविता
ज़िंदगी,क्यों ज़िंदगी से थक रही है,
साँस पर जो दौड़ती अब तक रही है।
मंज़िलें गुम और ये अंजान राहें,
कामयाबी चाह की नाहक रही है ।
भूख भोली है कहाँ वो जानती है!
रोटियाँ गीली, उमर ही पक रही है।
हो गए ख़ामोश अब दिल के तराने,
बदज़ुबानी महफ़िलों में बक रही है।
लाश पर इंसान के जो भी बनी है,
राह क्या इंसान के लायक रही है।
आसमां में छा गई हैं बददुआएँ,
ये ज़मी फ़िर भी दुआ को तक रही है।
बिलबिलाती भूख में पगडंडियाँ हैं,
राह शाही भोग छप्पन छक रही है।
रेखराम साहू